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"कल"
कविता
कोई दिल में जब उतरता है
कवि हो जाना
आँसू कलम ने भी बेइंतहा बहाए है
ये कलयुग का इंसान है
बादल
मिली कलम पतवार सी
कलम-मिल गई मुझे शादमानी
जब कलम चलती है
कलयुग है ये
मैं वीर पुरुष बलशाली
क्यों लगता है मैं बहू से बेटी ना बन पाई
एजाज लिख दूं
ख्याल से हकीकत की कलम
हाथों में आ जाती है कलम
कल और आज
मासूम कलियां
तब तुम मेरे पास आना प्रिय
माई
एक और रामधुन
रूठी कलम
इन सबका रंग लाल है
मुर्दे की चाह
कलम से लगन लगी
मैं बाहर निकलूंगा तो
हमसफर.....
नन्ही कली
कलुआ....
ना कर इतना गुमां अपनी कलम पर ऐ शायर
कल मिलोगी जब तुम मुझसे...
एक चॉकलेट उनके लिए
कलाकार बनूं , या ना भी बनूं..
"लव आजकल"
कलम शहीदों की जय बोल
अंखियों के झरोखों से
बहुत याद आए
कल्पनातीत प्रणय मनुहार
जीने की कला
आजकल जब भी
आजकल पल पल रंग बदल रहे हैं लोग
असली फूलों के दीदार को
चॉकलेट का घर 🍬🍭
बंदर मामा
भारत देश और इंसान
एकलव्य का अंगूठा
अभिव्यक्ति भावों की
बरखा बरसी पर कलश खाली
पाप के कलश
#सृष्टि का क्रम
यूँ तकरार बनी मनुहार
दीवार
कलाम को सलाम
चित्रकार
अखण्ड भारत का संकल्प
तुम्हारा बदलना
श्याम थाम कलाई
ये हुनर दिखाने का
एक और रामधुन
कल फिर हो ना हो
फ़कीर
दरीचे
" महकती कली "
फिर से सतयुग भू पर लाओ
आजकल मेरे महबूब सर पर पूरा आलम उठाए हुए हैं
शामो-सहर रोजो-शब आज और कल बदलते हैं
दिल्ली दूर है
अदू समझा जिसे मेरी हबीब निकली
लेखक की कलम
रिश्ते याद तो आ जाते हैं
थोड़ी-सी जरुरतों वाले घर की रहगुज़र पर
आकलन करने को चाहिए सही तंत्र
सहेजे रखें संकल्प का प्रकाश
*विस्मित विषधर सकल भुजंग*
*जीने के हुनर भूल गए *
करते नहीं हैं याद हमको हबीब हमारे
"ताड़का-वध प्रसंग"
*कलम दवात के सहारे हैं*
घुली अजब सी भांग
आह निकली
*जमाल*
*अहसासे-फुर्क़त हुआ हदे- हयात से निकलकर*
खुशियों से ज्यादा ग़म निकले
*कलमदवात बदल जाते हैं*
अपनी पसंद की रहगुज़र हम निकलें
जद अपनी "बशर" अपने दस्तरस में नहीं
वक़्त हाथ से फिसल गया
हबीब की रक़ीबों से रब्त-ए-शानाशाई निकली
होश में रहता हूँ
खेलते नज़र आते नहीं बच्चे आजकल
बदल गए कल और आज
सफ़रपर तो निकलना पडेगा
तहरीर ए कलम नायाब हो
मछलियों को बहुत गुमान हुआ है
ताबे'दार बे-शु'ऊर निकला
वक़्त को मनाने में जमाने निकले
सूना पड़ा बाज़ार
दिल से वतन निकला ही नहीं
कागज़, किताब ओ कलम बचे
दूर खुद से भागता रहा आदमी
कहाँ गया आदमी
क्या आखीर-ओ-तासीर से भी बचकर निकल सकते हो
आते कल का सपना देखा था
बाद-ए-आज कल भी होते हैं
मतलब निकल जाए तो कदर कौन करता है - sumit arya shayari - शायरी
गुजिश्ता साल.... नज़्म
अर्थार्जन का सुखद संयोग
बच निकला उसे रब मिला
तजरबात मिले
सिकंदर को हराते कलंदर नहीं देखा
सोता ही नहीं है आदमी आठों पहर
बेवफ़ा निकला हबीब हमारा
सफ़र का हो गया
खुदको जाना बना कलंदर है
हरहाल में हिट जाते हैं
वक़्त ए तकलीफ़ नज़र आते हैं
हम फिर रोज़मर्रा में खो जाएंगे
सियासत कमाल है
अल्फ़ाज ऐसे न निकल पड़े कि वापस लेने पड़े
लौट कर नहीं आऊंगा
पता लगा कि लापता निकले
लहू पसीना बनकर रोमरोम से निकल आता है
मन मेरा ऐसे ही बरबस बिहंस गया........
भँवर से निकलना मुश्क़िल होता है
अपने घर में ही रहता है
ख़्याल हमारे पुराने निकले तो
दिल से लोग क्यूँ नहीं निकल पाते
सितम लोगों ने कलसे ज्यादा आज किया
आज और कल बिगाड दिए
सारा शहर उसके जनाजे में निकला इक वो न निकला जनाज़ा जिसके तक़ाज़े में निकला @"बशर"सारा का सारा शहर उसके जनाजे में निकला
सीनेसे निकलकर किधर जाएगा
इन्सां संभल जाता है तूफ़ान-ए-हवादिश से निकल जाने के बाद
कलभी अपना है गर आज अपना है
गजल
अपने अंदर तो कोई-कोई कलंदर था
वाह वाह और सिर्फ़ वाह वाह
जात क्या पूछते हो कलंदर की
खुद से निकलकर नहीं देखा
ना डरा था और ना ही डरूंगा
बे-वक़्त बिछड़ने वाले
लोग अपना रंग दिखाने लगे हैं
कमियाँ निकाल रहे हैं हमारे किरदार में
अपनों की फ़िक्र से निकलें तो हाल अपना देखें © 'बशर' bashar بشر
जिस्मों से इश्क़ 🥀
कल दिन अच्छे भी आएंगे
कलम की ताक़त क्या है
दम निकला हैं 🥀🥹
गाँव की गलियों से निकलकर कोईदरवेश आया @"बशर"
सबब बेकली और बेचैनी का
ग़ज़ल
कुछ हादसात भी ज़रूरी हैं
बचपन अक़्सर बहुत याद आता है
रखे ऊंची आवाज़
आज में गुज़रा हुआ कल ढूंढते हो
कमाने के लिए घर से निकलना पड़ता है
उसकी कलम का लोहा मानने लगे बड़े बड़े शायर
बंद कलियाँ खिलती हैं
काम केलिए निकल जाया करो
मिरा ही साया निकला मैं जिसके पीछे चला
हमारे लिए दुआ मांगने वाले ही हमारे क़ातिल निकले
रास्ते निकल जाते हैं
अजूबा यहाँ पर नहीं 'बशर' कोई इकलौते हैं
इस जहाँसे आगे जहाँ औरभी है
हमारी उनसे वस्लो-मुलाक़ात ही दवा है
दिल की अनसुनी करकेअक़्ल का निकला दिवाला
कल था न आज है 'बशर' ये ज़माना आपका
हम तपती रेतपर ही बैठेहुए देखते रह गए
वाना निकल पड़ा आगके दरिया की जानिब
हमारी भी चाह की कोई राह निकले
ख़ामुशी मेरी उड़ाकर रखदेगी नींद तुम्हारी रातों में
जनवरी आएगी तो माहे दिसम्बर जाएगा
जिंदगीसे भागकर आगे निकलने की न होड़कर
मर मर कर जीना सरासर बेमानी है
तुम्हारी दुनिया से निकलकर ही चला गया
बच्चे आजकल कब किसीको सजदा करते है
कहानी
स्वर्ग की सैर
बरसात की लास्ट लोकल (भाग - 1)
बरसात की लास्ट लोकल (भाग - 2)
बरसात की लास्ट लोकल (अंतिम भाग)
रुकी हुई ज़िंदगी भाग-३
यह आजकल की छोरियां
यह आजकल की छोरियां (दूसरा और आखिरी भाग)
हस्तांतरण
लोकल ट्रेन के डिब्बे के अनुभव
नीयत
और सूरज निकल आया
और सूरज निकल आया
संकल्प
समाज के दिखावटी मुखौटे
संकल्प
माई की कत्थई साड़ी
चिरकुमारी ... कल्याणी राए 💐
चिरकुमारी ... कल्याणी राए 💐
चिरकुमारी ... कल्याणी राए 💐
चिरकुमारी ... कल्याणी राए 💐
चिरकुमारी ... कल्याणी राए 💐💐
चिरकुमारी ... कल्याणी राए 💐
कल्हरे आलू
मोहताज नहीं होती कला
कल आज व कल
झरौखे की चा ह
नकलची चमचे
एकलव्य:महाभारत का महाउपेक्षित महायोद्धा
लेख
लक्ष्मण स्वरूप शर्मा जीवन परिचय अंतिम भाग
नशे में कलाकार
झूठ बोले, कौआ काटे ?
ताजमहल के कलश का रहस्य
ट्रेन के लोकल डिब्बे का एक्सपीरियंस
लोकल ट्रेन के एक्सपीरिएंस
ट्रैन के लोकल डिब्बे का एक्सपीरियंस
एकांत
कलम की कहानी
नव वर्ष पर मेरे संकल्प
"हुनर की अहमियत आज भी"
ऐ कलम मेरी, मेरे अल्फाज़ लिख दो।
क्या ये कलम का अपमान नहीं?
अभाव और मुश्किल ने सदैव बेहतर कल का निर्माण किया है
कली जो खिल नहीं पाई
शिक्षक बच्चों के भविष्य के लिए अपना आज और कल कुर्बान करते हैं
साहित्य संगीत कला विहीन साक्षात पशु पुच्छ विषाणहीन
पेन ( कलम)
फिल्म “आर्टिकल (अनुच्छेद)-370” समीक्षा
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