कवितालयबद्ध कविता
माई तेरा आँचल धूप में छांव जैसा,
माई तेरा दामन भंवर मे नांव जैसा।
माई मुझे चोट लगती है ऐसे न कहो-
माई तेरा गुस्सा प्यारा-सा घाव जैसा।।
माई कुछ आवाजें मुझे ढुंढती है,
माई निशा की रुदन, मुझे टटोलती है।
सुबह होने तक, माई तुम्हारे जगने तक-
मुझे अक्सर एक पीड़ा,रात भर रहती है।
कोई दिन निकल जाये कि तुम ठहर जाओ,
माई चैन ही छीन जाए ,गर तुम ठहर जाओ।
ये फूरसत की बातें और ये सुकुन के पल-
माई सब बिखर जाये कि जब तुम ठहर जाओ।।
© शिवम राव मणि
भावनाओ को शब्दो में तब्दील कर देना ही एक अच्छे लेखक की निशानी होती है
शुक्रिया
बहुत सुंदर रचना ...?? परन्तु कुछ एक पंक्ति थोड़ा असमंजस वाली प्रतीत होती हैं
आपका कहना सराहनीय है। आपने बिल्कुल सही कहा कि थोड़ा अटपटा लग रहा है, क्यों कि तुम ठहर जाओ के दो मतलब, विश्राम करना या बिल्कुल ही थम जाना ( यानी की कुछ ना कर पाना) , निकल सकते हैं। धन्यवाद आपका,; अगली बार से ध्यान रखूंगा।
सर माँ के आने से चैन ही छीन जाना या ठहर जाने से सबकुछ बिखर जाना थोड़ा अटपटा लगा .. माँ शब्द में ही शुकुन होता हैं और माँ तो खुद निर्माता है तो ये बिखराव कैसे हो सकता है...?????
शुक्रिया; त्रुटि कहां हो रही कृपया मार्गदर्शन करें