कवितालयबद्ध कविता
नमन--------साहित्य अर्पण एक पहल
आयोजन-------रविवारीय प्रतियोगिता
विषय--------------------------हास्य
तिथि-----------------06/09/2020
वार--------------------------रविवार
विधा------------लावणी छन्द में गीत
मात्राभार--------------------16,14
#मैं_वीर_पुरुष_बलशाली
एक पुरोधा कलयुग वाला,मैं वीर पुरुष बलशाली।
बहना घर पर ठौर न पाये,सम्भाल रही घर साली।।
पत्नी की यदि बात न सुनता,मैं बुद्धू कहलाता हूँ।
अगर खिलाता नहीं निवाला,मार सदा ही खाता हूँ।।
बाजार घुमाने लेकर जाता,इज्जत कभी न पाता हूँ।
बनूँ कुली मैं बीच शहर में,पत्नी का गुण गाता हूँ।।
गया फिसल मैं बीच सड़क पे,पाया था गन्दी गाली।
एक पुरोधा कलयुग वाला,मैं वीर पुरुष बलशाली।।
लौट शाम को मैं घर आऊँ,चूल्हा चौका करता हूँ।
थकी हुई थी मेरी पत्नी,दर्द बदन का हरता हूँ।।
रोज सुबह मैं बर्तन धुलता,बहता है खूब पसीना।
देख रही थी बाहर वाली,वह लगती मस्त हसीना।।
तिरछी नजरें मेरे ऊपर,वह लगती थी दिल वाली।
एक पुरोधा कलयुग वाला,मैं वीर पुरुष बलशाली।।
चैन न पाता सुबह शाम मैं,पैर सदा दबवाती है।
दशा देखकर हरदम हँसती,खाना वह बनवाती है।।
हालत हरदम पतली रहती,दशा देख मुस्काती है।
चली शहर में मौज लूटने,हरदम ही बलखाती है।।
रूप बनायी अपना ऐसा,वो लगती थी जस काली।
एक पुरोधा कलयुग वाला,मैं वीर पुरुष बलशाली।।
पत्नी नम्बर वन है मेरी,पति रहता है याद नहीं।
थक जाता हूँ घर के अन्दर,सुनती है फरियाद नहीं।।
बेलन लेकर दौड़ी पत्नी,मैं तो गिरा कड़ाही में।
हँस-हँस लोट रहा था बेटा,सम्मुख खड़ा गवाही में।।
मारी बेलन तन के ऊपर,वह पीटी थी जस थाली।
एक पुरोधा कलयुग वाला,मैं वीर पुरुष बलशाली।।
एक डाँट से सिकुड़ गया था,काली बन गुर्रायी थी।
पकड़ बाल को लगी मारने,तन में दर्द बढ़ायी थी।।
पास पड़ोसी हँसते रहते,शर्म कहाँ कब आती है।
तनिक न चिन्ता मेरी करती,गुस्से से चिल्लाती है।।
पड़ी मार जब होश नहीं था,बेहोश मुझे कर डाली।
एक पुरोधा कलयुग वाला,मैं वीर पुरुष बलशाली।।
अरविन्द सिंह "वत्स"
प्रतापगढ़
उत्तरप्रदेश