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और सूरज निकल आया - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

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और सूरज निकल आया

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और सूरज निकल आया
एक लड़की उस झुंड के साथ आई थी जो अंग्रेजी बोलती थी।मैं समझता तो नहीं था, मगर मानो मैं जानता था कि वह क्या कहती थी। मैंने भी उसकी आंखों में अपने लिए दबी- छिपी चाहत को पकड़ लिया था। चाहता था मैं उसके आस पास ही रहूं। वह भी बहाने -बहाने से यही करती थी! अचानक से आकर कभी मेरे बाएं खड़ी हो जाती, कभी दाहिने। मेरा मन पंछी बन गया था। हर समय चहचहाता था। पिछली रात वह झुंड जब हमारे घर में था,वे संगीत की बातें कर रहे थे, शायरी की बातें कर रहे थे। मैं कमरे की हवा महसूस कर रहा था मानो उसमें एक नशीली मादक खुशबू फैल गई हो। कभी मैं उसे कंधों से झुक कर किताब पढ़ते देखता, कभी अपनी लटों को संवारते देखता। उसके जिस्म की खुशबू महसूस करता। बमुश्किल अपनी निगाहों को काबू करता।
मुझे मालूम चला उन्हें कल ही वापस जाना था। फिर क्या पता कभी उसे देख सकूंगा या नहीं! उसका भरा भरा बदन, उसकी नीली आंखें, ज्यों- ज्यों मैं उसके जाने के बारे में सोचता, मैं बेचैन हो रहा था।
यह नवंबर के दिन थे।मैंने उससे इशारों में कहा, "तुम पहाड़ी पर चढना चाहोगी। उसके शिखर से सारा शहर दिखता है? वहां एक गिरजाघर भी है। तुम्हारा ग्रुप तुमसे वहीं आकर मिल सकता है और वही से मैं तुम्हें अलविदा कह दूंगा।" उसके गाल लाल हो गए उसने हामी भर दी। वह पहाड़ी यात्रा रहस्यमई थी। आगे का सफर एक नई जिंदगी का आगाज़ करेगा ऐसी उम्मीद से हम चल दिए।सरसर हवा, हंसता हुआ चांद मानो हमें ही देख रहा था, हमारे साथ- साथ चल रहा था।हम कभी चुप होते ,कभी हंसते, एक जादू था। जादू में लिपटी सकरी पगडंडी, उबड़ -खाबड़ रास्ते, कभी हम झटके से आगे बढ़ते, कभी महसूस होता रास्ता न भटक रहे हों।कभी नीचे उतरते हुए लड़खड़ाते, कभी गिरने -गिरने को होते। इसी बहाने एक दूसरे का हाथ थाम लेते। हम खुश थे। हम हर पल को महफूज रखना चाहते थे। इस यात्रा में हमने कुछ ज्यादा बातचीत नहीं की, जो कुछ भी था वह अनकहा मगर एक दूसरे को के लिए जाना हुआ।
सुबह हुई हम गांव में पहुंच गए हम बहुत थके हुए थे। भूख भी लगी थी।
दूर उगते हुए सूरज की लाली देखी, जो शिखर तक सिंदुरी रंगत दिखाई दे रही थी। रास्ता बहुत कठिन था,खैर पीछे छूट चुका था। आसमान में अब नीली आभा की जगह सुनहरी रोशनी फैल चुकी थी। पूरब का रंग पूरी तरह केसरिया हो चुका था।
हम गिरजाघर ना जाकर एक गेस्ट हाउस में पहुंचे। मैंने उस लड़की की और देखा।वह खामोश थी मानो इसी पल के इंतजार में थी, मगर फिर क्या हुआ कि अचानक उसने अपने गले में लटके क्रॉस को देखा! मैंने उसका चेहरा देखा।उस पर एक अबूझ सी चुप्पी फैल गई।मैंने गेस्ट हाउस के रजिस्टर में अपना नाम और उसका नाम लिखा। रिसेप्शन से चाबी ली।

मेरे संस्कार मुझे जकड़ रहे थे। अगर इन संस्कारों को मैंने झुठला दिया तो क्या होगा! एक कशमकश.... और तभी मैंने चाबी लौटा दी! मैं बाहर निकल आया। वह तब भी क्रॉस पकड़े खड़ी थी। मुझे बाहर आता देख मानो उसकी थमी हुई सांसे फिर वापस आ गई। अब पूरा सूरज निकल आया था। हमने मुस्कुराते हुए एक दूसरे को अलविदा कहा।
गीता परिहार
अयोध्या

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दादी की परी
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