कविताअतुकांत कविता
मैं बेटी ना बन पाई
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क्या लिखूँ क्या नही , एक अजब सी उलझन में हूँ ...
कुछ सवालों के जवाब को सुलझाने की सुलझन में हूँ ...
जब बेटी का जन्म हुआ तो कहलाई आँगन की चिड़िया ...
तानो से और बंदिशों से बड़ी हुई एक नन्ही सी गुड़िया ...
कहा जाता हर वक़्त सीख ले कढ़ाई और बुनाई ...
कुछ ही समय मे हो जाना जल्दी ही हम सब से पराई ...
मेरे साथ माँ को भी पड़ती थी गालियां मुझे पैदा करने की ...
सोचती थी हर वक़्त क्या हुआ जो माँ आज तक सब सुनती आई ...
*माँ को देख के लगता है वो बहु से बेटी ना बन पाई ...*
संस्कारों की पोटली बांध के , माथे पर चुंदड़ी लाल ...
नन्हे से कंधो पे उठा के बोझ जिम्मेदारियों का चली ससुराल ...
हज़ारों सपनों को दफन कर के , कुछ नए सपने बुनने चली थी ...
जहाँ सब एक परिवार थे , पर मैं अकेली सबसे अंजान थी ...
*तब भी डर से सोच में थी माँ अब तक बहु से बेटी ना बन पाई ...*
माता , पिता , भाई , सारे थे एक ही परिवार में ...
बस एक बेटी की कमी मैं पूरा करने चली थी ...
अपनापन , प्यार से भरपूर खुशी से जिंदगी मैंने बितानी चाही ...
सबका प्यार सम्मान जीतने की मैने तब से उम्मीद जगाई ...
*फिर भी क्यों लगता है मैं बहु से बेटी ना बन पाई ...*
ससुराल आते ही हमेशा जेहन में आई माँ की चंद बातें ...
साँस को हमेशा माँ ही समझ उनकी अपार सेवा करना ...
कभी भला बुरा कुछ कह दे , पलट के जवाब न देना ...
माँ ने सिखलाया वो सब बातें अपनाने चली आई ...
*फिर भी क्यों लगता है मैं बहु से बेटी ना बन पाई ...*
माँ ने कहा , खुद की मर्ज़ी ना चलाना कभी ...
ना ही बड़ों की बातों में कोई नुक्स निकालना
जिस हाल में जी लेना घर की लक्ष्मी बन के ...
माँ का कहा सुन के अब तक सब निभा आई ...
*फिर भी क्यों लगता है मैं बहु से बेटी ना बन पाई ...*
जब भी कोई अहम फैसला हो ससुराल का सबकी राय ली जाती है ...
कुछ कहना चाहु कभी घर की भलाई के लिए ...
चेताया जाता तुम बेटी नही हो बहु हो इस घर की ...
चुप रहो , अभी नई नई हो इस घर मे आई ...
*फिर भी क्यों लगता है मैं बहु से बेटी ना बन पाई ...*
माँ ने कहा था सबकी पंसद का ख्याल रखना अब तेरी जिम्मेदारी ...
रूखा सूखा जैसा मिले खाने , खुशी खुशी खा लेना ...
सासु माँ का प्यार पाने को न जाने कितने ही जतन करती आई ...
ना मिला प्यार कभी भी ना दिल मे सबके जगह बना पाई ...
*फिर भी क्यों लगता है मैं बहु से बेटी ना बन पाई ...*
सबकी पंसद का ख्याल रखते रखते मैं खुद को अब भूल गई ...
अपनी मनपसंद चीज़ें तो दूर , अपने सपनों तक को भूल गई ...
अपनी हर ख्वाहिशों को बंधनों में जीते जीते भूल गई ...
अपनों के खुशी में जीते जीते बस उनकी खुशी न भूल पाई ...
*फिर भी क्यों लगता है मैं बहु से बेटी ना बन पाई ...*
जब से हुई माँ के आँचल से दूर , हमेशा माँ की ममता की याद आई ...
जतन से निभा रही हूँ ससुराल में मिले सारे रिश्तों को...
कसक रही बस एक ही इस सवाल को सुलझाने की ...
क्या कमी रह गई जो मैं ससुराल में अपनी इज़्ज़त न बना पाई ...
*फिर भी क्यों लगता है मैं बहु से बेटी ना बन पाई ...*
ममता गुप्ता
मौलिक व स्वरचित
राजगढ़ अलवर
बहु कितनी भी कोशिश कर ले बहु ही रहती है। और सास कितनी भी कोशिश कर ले सास ही रहती है पर मेरा मानना है कि बहु को बहु और सास को सास रहने दिया जाए बस उनके बीच का प्यार बढ़ता रहे।