कवितालयबद्ध कविता
मन मेरा ऐसे ही बरबस बिहँस गया,
देखा जो पथ पर नित ही बात नया,
काल का चाल गजब का देखा,
समय केंद्र पर नहीं बदली हाथ की रेखा,
बात-बेबात मन उलझा फिर ऐसे,
उपजा हृदय में द्वंद्व का गाँठ नया।।
चमत्कार कुछ ऐसा, धन- बल था छाया,
लाभ-हानि के गणित का बना हुआ था साया,
वही सुखी जो निपुण था छल-कल में,
वैभव के आँचल में बनता अपना और पराया,
कहा जो मैंने बात सही, मन बिहंसा था जैसे,
मिला जो कुछ उलझन का सौगात नया।।
देखा जो, मानवता का बाजार लगा था,
बिकता था प्रेम, गजब का दरबार लगा था,
अधिक कहूं क्या?. छल का व्यापार लगा था,
मानक बिंदु पर तत्पर हो व्यवहार लगा था,
अनुचित-उचित होता निर्धारण धन के जय से,
मानवता के आँचल में बिछता बिसात नया।।
आगे जो देखा, उपमानों की अप्रतिम छाया,
वैभव का बल देखा जो, मन मेरा मुसकाया,
समय का चाल गजब, कुछ-कुछ तो अजब,
उलझन के जाले में फंसकर मन भरमाया,
यह जो चमत्कार प्रगटा अपने-आप समय से,
यहां धूमिल हो रहा परमार्थ, हैं यह बात नया।।
मन मेरा ऐसे ही बरबस बिहँस गया,
देखा, धन-बल का चलता मस्ताना हाथी,
मानवता का तमगा लेकर खुब फुलाए छाती,
लाभुक का मन कोमल, संग बहुत हैं साथी,
निनाद-स्वर गुंजित नभ धन-वर्षा के जय से,
पथ पर होते हुए बातों को कर दूं आज बयां।।