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कल्हरे आलू - Kamlesh Vajpeyi (Sahitya Arpan)

कहानीसंस्मरण

कल्हरे आलू

  • 183
  • 12 Min Read

संस्मरण
'' कल्हरे आलू ''
कालेज के दिनों में. मेरे कई घनिष्ठ मित्र थे,जिनके साथ बहुत सा समय व्यतीत होता था. घरों में भी खूब आना जाना रहता था.
शाम को हम लोग रोज़, मोतीझील.. पर इकट्ठा होते और काफी देर बातचीत करते. पिक्चर जाना भी साथ ही होता था. सब अपनी-अपनी साइकिल पर आ जाते.

हमारे एक मित्र दिनेश. बहुत सज्जन और सरल स्वभाव के थे. हम लोग आपस में अक्सर मिलने के लिए भी एक दूसरे के घर जाते थे.
वैसे तो सभी अपने माता-पिता का आदर करते हैं. वे अपने माता-पिता के बहुत आज्ञाकारी थे, और आदर भी बहुत करते थे.
उनकी माता की दिनचर्या बहुत धार्मिक थी. प्रातः जल्दी वे अन्य महिलाओं के साथ,रोज़ गंगा जी नहाने जाती थीं. वहां से पैदल 20-25 मिनट का रास्ता था. वहां पूजा-पाठ करके, वे काफी देर से लौटतीं. सुबह से कुछ खाती पीती तो थीं नहीं.. उनके लौटने पर, उनके लिए, दिनेश नित्य '' कल्हरे आलू और चाय बनाते. तब उनका उपवास टूटता.
यह उनका नित्य का नियम था. हम लोग आपस में अक्सर चर्चा भी करते थे, विनोद में हंसते भी थे.
दिनेश कहते '' हमारी माता जी को '' गंगा जी '' का नशा है. उनका यह नियम कभी नहीं टूटता.
समय बीतता गया. हम लोग नौकरी भी करने लगे. उस समय तो सबकी नौकरी लोकल ही थी.
हम तीनों मित्र शाम को आफिस के बाद मोतीझील पर अवश्य इकट्ठे होते. बातचीत होती, कभी-कभी लौटते हुये, कहीं चाय - काफ़ी भी पी जाती.

लेकिन दिनेश जी का '' कल्हरे आलू '' का क्रम वैसे ही अनवरत, चलता, जिसके बाद वे कहते, माता जी को " एनर्जी '' आ जाती है.
समय बीतता गया. उनकी माता जी भी व्रद्ध हो चलीं. लेकिन उनका गंगा जी और '' कल्हरे आलू '' का क्रम वैसे ही चलता रहा.
बाद में दिनेश की नौकरी लखनऊ में लगी.

वे अपनी माता जी को लखनऊ भी साथ ले गये, लेकिन '' गंगा जी '' के बिना उनका मन वहां नहीं लगता.वे उदास हो जातीं.


उनकी इच्छा से,वे उन्हें, अपने भतीजे के परिवार के साथ. कानपुर ही छोड़ गये.
उनका '' गंगा जी " का साथ चलता रहा. दिनेश भी लखनऊ से अक्सर उनसे मिलने और देखने आते.

हम लोग भी दूसरे शहरो में चले गये.
कभी हालचाल ही मिल पाते..!
उनकी माता जी ने भी अपना शरीर '' गंगा जी '' के श्री चरणों में छोड़ा.
बाद में भी जब भी हम मिलते.. उनकी माता जी, हम लोगों का शाम को मिलना और उनके '' कल्हरे आलू '' की
याद करते...!
अभी भी तीनो मित्र कभी-कभी सम्पर्क में रहते हैं. और पुराने दिन याद करते हैं.

मोतीझील का सौन्दर्यीकरण हो चुका है. स्वरूप भी बहुत बदल गया है.. और उस भाग को "कारगिल पार्क " का नाम दिया गया है. . अभी भी मैं जब भी कल्हरे आलू खाता हूं तो अनायास उनकी माता जी की पुण्य स्मृति अवश्य आती है.

कमलेश वाजपेयी
नोएडा
25.5.21

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Amrita Pandey

Amrita Pandey 2 years ago

बहुत अच्छा संस्मरण। बचपन के दिन हमेशा याद आते हैं। यूं तो हम पांच दोस्त थीं जो पंच प्यारे कहलाती थीं लेकिन उनमें से हम तीन बहुत पक्के दोस्त थे और आज भी वैसे ही हैं। बचपन के जैसे

Kamlesh Vajpeyi 2 years ago

अम्रता जी.. धन्यवाद 🙏

दादी की परी
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