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"तन"
कविता
सूरज
तन्हाई
परंपरा और आस्था
इतना हँसो कि रोने का वक्त ना मिलो
शाक्य की तलाश
चीटिंगखोर ज़िंदगी
माहिया
चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया
मैं हूँ हिन्दी सज रही माथे पर मेरे बिंदी
अन्तः परिचय
मौला.....! तू करम करना
इतना हँसें कि रोने का वक्त ना मिले
सन्नाटे में तैरता सा कोलाहल
बोल मेरी मछली, कितना पानी
जिंदगी तुम इतनी दूर क्यों हो
दो मिनट
काश..एक बार तुम मेरी खामोशी सुन लेते
मनभावन चांद
रोष
हे! देशभक्त जाँबाज वतन के रखवालों
कितनी जल्दी भूल जाते हैं
ये तज़ुर्बा कुछ और है
कैसी यें शिकायतें
जीवन का एक दिन सा भी
नूतन वर्ष का अभिनंदन
2021
खुद ही देखिए,
शीत ऋतु
शीत ऋतु
खूंटी पर टंगी वर्दियां
खूंटी पर टंगी वर्दियां
#चित्र प्रतियोगिता (बचपन के वो दिन)
ना कर इतना गुमां अपनी कलम पर ऐ शायर
खुश है वो देखो कितना..
परिवर्तन
तन ही कमजोर था
ऋतुराज बसंत है आया
मधुर मिलन
गुँजन
गुजारिश
वह आदमी
दूर ना जाना
काजल
मन तन के पार
मन तन के पार
घर का द्वार खुला है
न्याय इतनी दूर क्यों ?
न्याय इतनी दूर क्यों ?
जिन्दगी का सफर
पृकृति
पृकृति
सपना
सन्नाटे में तैरता सा कोलाहल
चेहरे छुपाने पड़ रहे हैं
मैं तन्हा हूं
तन्हा मैं नही
मिट्टी का बर्तन
प्यार के भंडार से
हे कृष्ण! कितना आसान है
"पूनम की रात "
विरह गीत
✍️गम भी जिंदगी को कितना कुछ सिखा देता है।।
कालचिंतन
मैंने आज बस इतना किया
चकमक पत्थर
फिर देख !!!
परिवर्तन कहीं आस-पास है
मैं एक सोयी चेतना हूँ
पापा
जुदा तन्हा रात
जिद मेरी इतनी सी
ए अजनबी
सफ़र
तन्हा
हम तन्हा हो जाते हैं -कविता
मुंह जितनी बात
तू है अनमोल रतन
तू है अनमोल रतन
तन्हा होकर रह गई जिंदगी
शिद्दत और बढ जाती है उनके याद आने की
उत्साह का नव प्रवाह
काश जन चेतना भरे कुलांचें
वो हमसे पूछे कितना है क़रीब मेरा
हम कितने चैतन्य
उम्रे-ए-तमाम शबे-तन्हाई है
आज वतन की शान में करते थकते नहीं गुणगान
मुकम्मल कभी सपने नहीं होते
चंद्रयान
कितने खुदाओं पे यक़ीन करें
मेरे वतन में खुदा बहोत हैं
रात लम्बी हो रही
करवाचौथ का चांद
याद करे
"बशर" किरदार तेरा कितना महान है
*हम बच्चे थे*
Ghazal
औक़ात
खामोशी और तन्हाई 🥹
तन्हाई
तन्हाई
तनहाई
तुझपे कितना एतबार करूं
दर्द की दर्द से शिफा किए बैठे हैं हम
तन्हाइयों की हैं बशर मजबूरियाँ बहुत
मुस्तक़बिल के अपने खुद ही खुदा होंगे हम
मुस्तक़बिल के अपने खुद ही खुदा होंगे हम
इरादों को मदद नहीं चाहिए तक़दीर की
तिश्नगी बढ जाती है
अनसुलझे शब्द मेरे
यौमे-जम्हूरियत मुबारक
जिंदा भी हैं के मरगए इतनी तो ख़बर रखो
वक़्त को मनाने में जमाने निकले
बचपन याद आता है
उतने ग़म न मिले
हसरतें काफ़ूर
इतना तो होश है
ए वतन
ए वतन
मेरे वतन
दिल से वतन निकला ही नहीं
वतन से ऐसी बेवफ़ाई न थी
इतना सा ही तो फ़र्क है
जितनी बड़ी जंग होती है
~ नाराज़गी मेरे महबूब की
वफ़ा करने वाला तन्हा क्यूँ है
अहसास भी रख लो
तन्हाई की ख़ामोशी से गुफ़्तगू होती है
बशर तेरी कहानी इब्रतनाक है
इक शे'र
उम्मीद और अपेक्षा
अब तो 'बशर' याद ही नहीं
हिम्मत बुलंद है जहां
फ़ितरत काफिराना हमारी
जितनी सफाई देगा ज्यादा यहाँ
तन्हा भी नहीं रहने देतीं
खौफ़ कितना मासूम परिंदों को
भीतर से कितने रीते हैं हम
तन्हा रहने की आदत डाल लीजिए
उम्र हुई तमाम दर्दे -दिल को समझाने में
विदेशी शहर
ज़रूरी है जीते-जी चेहरों पे मुस्कान लाना
तुम कितने दूध के धुले हो मैं जानता हूँ
इतने क़रीब मिले
सब भूल जाएंगे तुम कितने अच्छे थे
जून की उसके नसीब में नहीं है
जीतने वाला साबित हुआ
पता ही नहीं जिंदा हैं कि मर गए हम
जितना ये सफ़र मेरा है उतनाही तेरा भी है
पहला प्यार
पहला प्यार
तन्हायी
साथ तन्हाई का ही बेहतर है
साथ तन्हाई का ही बेहतर है
नादानी में जिंदगी तन्हा होती है
कितने लोग वो देखते हैं जो उन से छुपाया जा रहा है! @"बशर"
उम्र-ए-तमाम शब-ए-तन्हाई है
वक़्त ही नहीं मिलता
चिंतन मनन वांछित से आधा हुआ है
तन्हा हैं 'बशर' हम अकेले
ठोकरें खाता है उतनी ही ज्यादा अक्ल आती है
तौर-तरीके तर्ज़ेअमल उस्लूब-ए-वफ़ा-ए-वतन हम नहीं समझे
सफ़रमें लगी ठोकर
तन्हा और दोस्तों संग वक़्त बिताने में फ़र्क होता है
काम केलिए निकल जाया करो
दम घुट जाए
इतनाकुछ करने को है
माटी से शुरू माटी पर ख़त्म बात हयात की
सुकूने-क़ल्ब हवा हुए के इतने ग़रीब हुए
मुफ़लिस की सल्तनत में धनदौलत आसपास नहीं आती
बेज़ारी में कितना ही वक़्त गुजारा है
इन्सान क्यूँ इतना परेशान रहता है
होती नहीं खुद ही से खुदकी मुलाक़ात
खुदसे मिलनाभी उतनाही ज़रूरी है
औक़ात घरबार में
तन को निखारने से क्या होगा
अपने तुम्हारे कितने अपने हैं
नतमस्तक होना पड़े
कहानी
जन्नतनशीं
फिर वही तन्हाई
सौतन ( फॉर वैथ)
तन्हाई
हम कितना बदलें
इंसाफ़ होता है
गार्ड का डिब्बा
सुकून
हसरत की हक़ीक़त
हसरत की हक़ीक़त
समर्पण
सुहानी प्रेमिल शाम
हसरत की हक़ीक़त
तन्हाई
तन, हाथ का मैल नहीं
लेख
उम्मीद
आस्था और विश्वास : मानव चेतना के बँधक
ऐ कलम मेरी, मेरे अल्फाज़ लिख दो।
आया है मुझे फिर याद वो जालिम
सामाजिक मूल्यों का पतन, जिम्मेदार कौन?
मैंडी का ढाबा
परीक्षाओं की तैयारी
दिल का दर्द
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