कवितागजल
चाहें सारा जहां छान लो,ये तजुर्बा कुछ और है।
सामने ख़ुदा है,मगर दिल ने कहा, कुछ और है।
ये नोबत ही तो है,जो चेहरे बदल देती है,
कल के किसी खूब की,आज अदा, कुछ और है।
क्यूं ढकते हैं वो? हिजाब से अपने ज़ख्मों को,
हरक़त तो जनाब की, करती बयां, कुछ और है।
कल्ब की ये उदास ज़मीं,जो भीगी है बहुत,
के रात भर सोने का,ये बहाना, कुछ और है।
क्या इबादत,क्या शराफत,सब है गीर्दाब में,
अब यकीन है,तकदीर का रवैया, कुछ और है।
आदमी का ये क्या हाल,के सब मज़बूर यहां,
चाहत की हथेली पर,ये इंसा, कुछ और है।
फरेबी बातें, यहां कितनी है, कितनी नापें,
तर्स के शूल पर “मनी”,ये ज़माना, कुछ और है।
शिवम राव मणि ©