कवितागीत
#विरह_गीत
सावन बीत चला फिर भी, सखि साजन घर नहीं आएं
बिन साजन तन्हा मैं बिलखूं, मन को धीर नहीं आएं।।
शीत पवन भी ऊष्ण लगे है, मन ये मेरा अधीर हुआ
शीतल वायु ज्यों छूती तन को, जैसे अनल ने मुझे छुआ
निरसता जीवन में छाई, मेरा दिल ये बहुत घबराये
बिन साजन तन्हा मैं बिलखुं, साजन घर नहीं आएं।।
राह निहारूं साजन की मैं, भरकर नयनों में नीर
दयाहीन हुए साजन मेरे, नहीं समझे मन की पीर
मैं विरहन विरहा में भटकूं, साजन की आस लगाएं
बिन साजन तन्हा मैं बिलखूं, साजन घर नहीं आएं।।
सेज सजाऊं, मैं कैसे प्रीतम, मन है बहुत उदास
प्रीत मिलन के अवसर में, नहीं प्रियतम मेरे पास
सूना सब श्रृंगार प्रिय बिन, मन को कुछ नहीं भायें
बिन साजन तन्हा मैं बिलखूं, साजन घर नहीं आएं।।
आ भी जाओ अब तो दिलबर, करो ना मुझको तंग
तुम बिन साजन हुआ है ओझल, मेरी रूह का रंग
बाट निहारूं दिवस रैन, अपना सुख चैन भुलाएं
बिन साजन तन्हा मैं बिलखूं, साजन घर नहीं आएं।।
स्वरचित
योगी रमेश कुमार