कविताअतुकांत कविता
खूंटी पर टंगी वर्दियां
डोल रही हैं हौले हौले
खूंटी पर टंगी वर्दियां
मद्धिम सी हवाएं
भर रही हैं उनमें प्राण
कि लग रही है चैतन्य ,
हैं सजने को आतुर
फिर उन बांकुरों के तन पर
जो वार दें सर्वस्व अपना वतन पर
नहीं जानतीं, वह तो पहले
ही कर गया
खुद को अर्पण देश पर
और हो गया
उसी की माटी में एकाकार
बस अब बाकी हैं उसकी
कुछ बातें, कुछ किस्से ,
कुछ यादें, कुछ वादे
थोड़े निरर्थक, थोड़े अर्थपूर्ण,
कुछ वादे...
छिपी भविष्य की कोख में
जिनकी नियति...
होंगे पूर्ण! या रह जाएंगे अपूर्ण ?
अपूर्ण! उन सपनों की तरह,
तोड़ कर फेंका था जिन्हें किसी ने
अपनी कलाइयों से...
टूटी चूड़ियों की तरह...
अपूर्ण! जैसे हो...
मांग में सजी वह सिंदूरी आभा
धुल गई जो आंसुओं की बरसात में
एक दिन और...
जम गई धरा पर
लहू की तरह