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शीर्षक --फिर वही तन्हाई
"मुझे क्या पता था कि तुम पीछे ही पड़ जाओगी।" तुम्हारे कहे ये चंद शब्द स्तब्ध कर गए थे मुझे,तुम्हारे मन में बसी कड़वाहट दिखी थी मुझे।
इतनी नफरत???? क्यों????
याद आने लगा सब कुछ मुझे। अकेलेपन के दर्द को अपने अन्दर दबाए मैं अपनी ही दुनिया में रहती अपनी जिम्मेदारियां निभा रही थी। कई बार रास्ते में देखा था तुम्हे। पर एक दिन तुमने रोक कर बात करनी चाही, तो डर सी गई थी मैं। याद है उसके बाद कितने चक्कर लगाए थे तुमने मेरा फोन नंबर लेने के लिए।
चालीस पार कर चुकी थी मैं।जहाँ मेरी उम्र की औरतें इस उम्र तक अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लेती हैं वही मैं तकदीर से लड़ने की हिम्मत जुटा गई थी। तुम मुझसे उम्र में कम हो मैंने देखा ही नही।
मुझमें भी धीरे धीरे जीने की इच्छा जागने लगी थी। मैंने भी नंबर देकर एक नई जिंदगी की शुरुआत करनी चाही थी।
मेरे अकेलेपन की घुटन और तुम्हारी मुझे उस घुटन से बाहर निकालने की ज़िद,बडी कशमकश थी। फिर कब मैं तुम में खो गई पता ही नही चला। तुम्हारा साथ पाकर फिर से जीना सीख गई।
पहनना-ओढ़ना,साज-सिंगार सब कुछ वापस आ गया था।इस परिवर्तन को सबने महसूस किया था। पर मैं जानती थी इसकी वजह तुम थे। और ऐसी ही तो थी हमेशा से मैं जिसे तुम ढूंढ लाए थे।
कितनी बातें करती थी मैं। लगता था अपनी उम्र से दस साल पीछे चली गई थी। खुद से ज्यादा तुम पर भरोसा करने लगी थी। तुम कहते थे कि "कुछ भी हो जाए मैं तुम्हारा साथ कभी नही छोड़ूंगा।" मैं जी रही थी और दोनों हाथों से खुशियाँ समेट रही थी।
पर एक बात का डर हमेशा सताता था।जानते हो क्या??हम दोनों की उम्र का अंतर। तुम्हे याद है पीछे हटना भी चाहा था। पर तुम नही माने।हमेशा यह कहकर चुप करा देते "मुझे कोई फर्क नही पड़ता एक को तो छोटा होना ही था तो मैं ही सही।"यकीन मानो यह सुनकर तुम्हारे प्रति सम्मान की भावना भी आ गई थी।
ऐसे ही तीन साल बीत गए। फिर वही हुआ जिसका डर समय समय पर मुझे आगे बढ़ने से रोकता था। मैं भूल गई थी कि ऐसे संबंधों में एक पड़ाव जिस्मानी संबंधों का भी होता है। तुम्हारी भी जिस्मानी जरूरत है। यही तो था उम्र का अंतर। मुझे मन का साथ चाहिए था और तुम्हे अब तन का भी साथ चाहिए था।
धीरे धीरे तुम बदलते गए। मुझे सीधे सीधे मना तो नही कर पाए,पर और तरीके अपना लिए। रोज एक झूठ,रोज एक बहाना,"अभी व्यस्त हूँ"कहकर फोन काट देना। मुझे बार बार बेइज्जत करना,मुझे उम्र का अहसास कराना, देखकर मुझे रास्ता बदल लेना। दिखने लगा था मुझसे तुम्हारा दूर जाना। तड़प के रह जाती थी मैं।
तुम्हारे नफरत की हर इंतेहा बरदास्त करती रही।जानते हो क्यों??क्योंकि डरती थी तुम्हे खोने से।कांप जाती थी उस अकेलेपन में फिर से जाने की सोचकर जिससे तुमने निकाला थ। बहुत रोईं,गिड़गिड़ाई,कहा कि बात करना मत छोड़ो मैं मर जाऊँगी। पर तुम तक आवाज नही पहुँची। प्रेम की पराकाष्ठा जब नफरत की इंतेहा में बदल जाती है तो रिश्ता उसी क्षण मर जाता है।
फिर उस दिन तुम्हारे उन शब्दों को सुनकर मैं समझ गई कि मैं अब और तुम्हारा साथ नही पा सकती। तुम्हे भी आभास हो गया था कि भावना में बहकर तुमने गलती की। ऐसे रिश्ते हमउम्र के साथ ही अच्छे होते हैं जहाँ दोनों की जरूरतें एक सी होती हैं। तुम एक नई दुनिया में चले गए।
आज मैं फिर उसी अपनी तन्हाई की दुनिया में हूँ। पर अबकी तुम्हारे दिए जख़्म भी मेरे साथ है। जो अब नासूर बन चुके हैं। अब यह अकेलापन कभी नही भरेगा क्योंकि नफरत हो गई है मुझे ऐसे रिश्ते से। और यह जान गई हूँ कि ऐसा कोई रिश्ता होता ही नही है।
प्रतिभा सिंह