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नैतिक मूल्यों का पतन, जिम्मेदार कौन?
नैतिक मूल्य क्या हैं,पहले इसे परिभाषित करते हैं।मेरी राय में वे गुण जो व्यक्ति के स्वयं के सर्वांगीण विकास और कल्याण में योगदान देने के साथ-साथ किसी अन्य के विकास और कल्याण में किसी प्रकार की बाधा न पहुंचाएं, नैतिक मूल्य हैं।नैतिकता सद्गुणों का समन्वय मात्र नहीं है, अपितु यह एक व्यापक गुण है।नैतिक मूल्यों का प्रभाव हमारे समस्त क्रिया- कलापों पर होता है।हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व इससे प्रभावित होता है।नैतिक मूल्य नितांत वैयक्तिक होते हैं।अपने प्रस्फुटन उन्नयन व क्रियान्वय से यह क्रमशः अंतयक्तिक/सामाजिक व सार्वभौमिक होते जाते हैं।
युगों पूर्व ''वसुधैव कुटुम्बकम'' और ''यस्य नारी पूज्यते रमन्ते तस्य देवता'' जैसे आदर्श मानक स्थापित करने वाले भारत देश में नैतिक मूल्यों के ह्रास की स्थिति अकल्पनीय है। विचार इस बात पर हो कि इस नैतिक हृास के लिए कौन जिम्मेदार है।इन सवालों का जवाब गूढ़ नहीं है।
आज असंतोष, अलगाव, उपद्रव, आंदोलन, असमानता, असामंजस्य, अराजकता, आदर्श विहीनता, अन्याय, अत्याचार, अपमान, असफलता, अवसाद, अस्थिरता, अनिश्चितता, संघर्ष, हिंसा , अपराध से समाज घिरा हुआ है।इन समस्याओं के मूल में उत्तरदायी कारण है मनुष्य का नैतिक और चारित्रिक पतन, नैतिक मूल्यों का क्षय एवं अवमूल्यन।
मानव अपने निहित स्वार्थों के लिए जब गिरने लगता है,तो यह गिरावट उसे पाताल से भी नीचे गिरा देती है।दुर्भाग्यवश आज यह गिरावट हर क्षेत्र में नज़र आ रही है।
जिम्मेदार कौन?
आज संयुक्त परिवार प्रथा लुप्त सी हो गई है|सयुंत परिवार से जो सामाजिकता और संस्कार बच्चों को मिलता था वह आज एकल परिवार में संभव नहीं हो पा रहा है |जीवन-यापन की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में माता-पिता के पास समय नहीं है कि वे अपने बच्चों पर ध्यान दे पाएँ और उनको अच्छे संस्कार दे सकें|
आज से बीस पच्चीस साल पहले इतनी हिंसा, अपराध की वीभत्स घटनाएँ ,आधुनिकता के नाम पर अश्लीलता या प्रेम के नाम पर वासना नहीं थी,छोटे बच्चे खुले आम देर रात तक बाहर खेलते थे समाज में संयम और परस्पर सहायता के भाव थे।आज टी.वी., इन्टरनेट और सिनेमा से भौंडे, संवेगों को भड़काने वाले वीडियो,अश्लीलता की हद पार करने वाले दृश्य,गाने और नग्नता ने सामाजिक मूल्यों के पतन में कोई कसर नहीं छोड़ी है।अश्लील और फूहड़ सामग्री का कुप्रभाव समाज पर, विशेषकर बच्चों के बाल मन पर पड़ रहा है| सीखने की उम्र में सही दिशा, सही परिवेश मिलना चाहिए,मगर...!हम चुप रहकर इस नैतिक और चारित्रिक पतन को अपनी मौन स्वीकृति दे रहे हैं..या फिर हो हल्ला या हत्या, आत्महत्या जैसी घटनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं।हम मनोरंजन के नाम पर परोसी जा रही गंदगी को बंद करने की माँग क्यों नहीं करते?
.सामाजिक मीडिया भी इसके लिए जिम्मेदार है। लोग अपनों से दूर और गैरों के करीब होते जा रहे हैं।सामाजिक बदलावों ने लोगों को अकेला और उपेक्षित किया है।सांप्रदायिक सौहार्द से लेकर पारिवारिक और भावनात्मक लगाव तक खत्म हो गए हैं और हो रहे हैं।ऐसे में सामाजिक मीडिया पर मिलने वाली अधखुली जानकारी हमारी युवा पीढ़ी को गर्त में ढकेल रही है।
नैतिक पतन की पराकाष्ठा तो यह है कि पहले अनैतिक काम करने वालों का सामाजिक बहिष्कार होता था।आज यदि वे धनी हैं तो उनके साथ खून माफ़ हैं। ऐसे लोग खुलेआम शान से घूमते हैं।हम विरोध नहीं करते, नजरअंदाज करते हैं , इससे उन्हें और बल मिलता है।
एक ही समाज में विभिन्न कालों में नैतिक संहिता भी बदल जाती है। जिसके आधार पर सत्य असत्य, अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित का निर्णय किया जाता है और यह विवेक के बल से संचालित होती है।
नैतिकता के आधार पर ही मनुष्य जानवर नहीं मनुष्य कहलाता है।
नैतिकता से सामाजिक जीवन सुगम बनता है और समाज में अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रहता है मानवीय भावनाओं ,जैसे; विश्व बंधुत्व, मानवतावाद, समता भाव, प्रेम और त्याग जैसे नैतिक गुणों के अभाव में विश्व शांति, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, मैत्री आदि की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
यदि बच्चों के परिवेश में नैतिकता के तत्त्व पर्याप्त रूप से उपलब्ध नहीं हैं तो परिवेश में जिन तत्त्वों की प्रधानता होगी वे जीवन का अंश बन जायेंगे। इसीलिए कहा जाता है कि मूल्य पढ़ाये नहीं जाते, अधिग्रहीत किये जाते हैं। इसलिए परिवेश में परिवर्तन अपेक्षित है।
गीता परिहार
अयोध्या
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