अचिर चिर निर्वाण में हूं, मैं तुम्हारे ध्यान में हूं
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कविताअतुकांत कविता
माँ त्रिपुर सुंदरी
जीवन में तुम्हारी स्पर्शमणि से
परम तत्व की प्रतिच्छाया
प्रकाशित होती
और संसार चक्र के
धुँधियाले में भयविह्वल
साधनारत मैं
जीवनोत्सर्ग को आतुर
मुक्ति की सँकरी पगडंडी पर
चलने
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कहानीलघुकथा
स्वयंसिद्धा
इतनी विषम परिस्थितियों में भी कात्यायनी अपनी सहज मुस्कान को विदा नही करती थी। अपार सहनशील, भारतीय संस्कृति की महान रक्षक, अपने रिवाजों, गृह कार्यों, जिम्मेदारियों को मजबूती से पकड़कर
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2 बार पोस्ट हो गयी रचना 🤔
होली प्रतियोगिता वाले लिंक पर और अपने पेज पर की थी
कविताअतुकांत कविता
जागरण करती है वो जोगन
गहन निद्रा में भी
निद्रागस्त होना भी चाहे तो
सजगता उसको सोने नहीं देती
हरीतिमा त्यक्त कर
लतामंडल का परित्याग कर
गमन करती है वो
धवालगिरि की ओर
देह के गिर्द है काला तमस
मानों,
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कविताअतुकांत कविता
माँ त्रिपुर सुंदरी
जीवन में तुम्हारी स्पर्शमणि से
परम तत्व की प्रतिच्छाया
प्रकाशित होती
और संसार चक्र के
धुँधियाले में भयविह्वल
साधनारत मैं
जीवनोत्सर्ग को आतुर
मुक्ति की सँकरी पगडंडी पर
चलने
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अद्भुत
नमस्कार
धन्यवाद सर
कविताअतुकांत कविता
तुम्हारे कोमल हाथों में देखा
एक संपूर्ण ब्रह्मांड
तब मैंने जाना
अंतस्तल तक विस्तृत होने का द्वार
यह भी है
मोक्ष का किवाड़ खुलता है
तुम्हारी छोटी हथेली में।
तुम्हारी चंचल दृष्टि में देखा
एक पूर्ण
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कहानीअन्य
#5line_story
स्वयंसिद्धा
इतनी विषम परिस्थितियों में भी कात्यायनी अपनी सहज मुस्कान को विदा नही करती थी। अपार सहनशील, भारतीय संस्कृति की महान रक्षक, अपने रिवाजों, गृह कार्यों, जिम्मेदारियों को मजबूती
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कविताअतुकांत कविता
जागरण करती है वो जोगन
गहन निद्रा में भी
निद्रागस्त होना भी चाहे तो
सजगता उसको सोने नहीं देती
हरीतिमा त्यक्त कर
लतामंडल का परित्याग कर
गमन करती है वो
धवालगिरि की ओर
देह के गिर्द है काला तमस
मानों,
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कवितालयबद्ध कविता
● स्वयं को जानो ●
स्वज्ञान से अनभिज्ञ होकर
सत्य की खोज असार है
अर्थशून्य मीमांसा त्यक्त करो
यही परम क्रांति की पुकार है
विद्यमान अवस्थान से खुलता
अगाध पात्रता का द्वार है
सृष्टि को स्वीकृत नहीं
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कविताअतुकांत कविता
जागरण करती है वो जोगन
गहन निद्रा में भी
निद्रागस्त होना भी चाहे तो
सजगता उसको सोने नहीं देती
हरीतिमा त्यक्त कर
लतामंडल का परित्याग कर
गमन करती है वो
धवालगिरि की ओर
देह के गिर्द है काला तमस
मानों,
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कवितालयबद्ध कविता
शरद पूर्णिमा में रास
शरद यामिनी प्रगटे निधिवन
परमानंद गुण अद्वैत गोपाला
शीश मुकुट श्रवण मीन कुंडल
कंठ विभूषित वैजयंती माला
पीतांबर धारे आभूषण सजीले
कटि पर मधुर किंकिणि चंगी
नख से शिख सब अति
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बेहद उम्दा। परन्तु मुझे इससे थोड़ा ज्यादा गहन शोध वाली रचना का इंतज़ार है। कृष्ण प्रेम में और ज्यादा रची बसी रचना ???? यह भी सुंदर है।
कविताअतुकांत कविता
कविता- ब्रजमंडल में ग्रीष्म
उग्र तापक ग्रीष्म हाय, अग्नि बरसाए ब्रजमंडल पर,
श्याम सुंदर नित धेनु चराए, उष्णता का त्याग कर डर।
कुंज वाटिका घोर तप्त है, व्याकुल है संतापित समीर,
क्षोभित अभिघातिन
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इतनी गहन सोच इतना मगन होकर लिखना सबकी बस की बात नही। मैं तुम्हारी प्रत्येक रचना पर नतमस्तक हो जाती हूँ। और जो मेरे प्रिय हैं उन पर तुमने इतना विस्तारपूर्वक लिखा कि मैं पढ़ते पढ़ते खो गईं एक एक शब्द एक एक पंक्ति बहुत गहन है। नमन तुम्हारी लेखनी को। ??
प्रिय नेहा जी, साधुवाद। लेकिन, मैं यह सोच रही हूं कि आप को रचना पसंद आने की वजह यह है कि आप स्वयं कृष्ण प्रेम से सराबोर हैं और कोई भक्त ही ऐसी रचनाओं का आनंद ले पाता है। ऐसे ही कृष्णमय रहिए
प्रिय नामदेव सर को यह कविता विशेष रूप से पसंद थी। उनको याद करते हुए, उनके चरणों में समर्पित
कविताअतुकांत कविता
चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया
रात्रि रास की बेला में
स्वामी आ बैठे मेरे पास
और भगवान के विग्रह से उतरी तुलसीदल माल
दे दी मुझे उपहार
मैंने परिहास में कमल पुष्प से
उनकी पीठ पर ताड़न किया
“मछली
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चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया के प्रेम को समर्पित रचना को स्थान देने के लिए साहित्य अर्पण को साधुवाद
खूबसूरत सृजन.. बधाई.. बेहद भावपूर्ण
धन्यवाद गौतम जी
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना सच कहूं कई बार पढ़ी और जितनी बार पढ़ी मन जीत लिया रचना ने ❣️
अहोभाग्य। अब देखिए
कविताअतुकांत कविता
गुरु के नाम
छद्मवेशी संसार में
असंख्य कल्पों से तुमको ढूंढ रही हूं
और तुम स्वप्न संकेतों से
इस पथभ्रष्ट स्त्री को
अपने पास बुलाते
अनंत जन्म, अनंत वेश, अनंत खेल
पांव पड़ते रहे मेरे सदैव
नित्य नए
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क्या कहूँ निशब्द हूँ रचना पढ़कर इतना गहन इतना सुंदर लिखा है मैं मंत्रमुग्ध। हो गयी रचना पढ़कर।
इस तरह की प्रतिक्रिया लेखन को सार्थकता देती है। धन्यवाद आपका
कविताअतुकांत कविता
पाप और पुण्य से परे
हे महायोगी
जैसे बारिश की बूंदें
बादलों का वस्त्र चीरकर
पृथ्वी का स्पर्श करती हैं
वैसे ही, मैं निर्वसन होकर
अपना कलंकित अंतःकरण
तुमसे स्पर्श करवाना चाहती हूं
तुम्हारा तीव्र
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कविताअतुकांत कविता
वियोगिनी का प्रेम
चंद्रपुष्प सघन केशों में सजाकर
रति को हृदय में बैठा कर
कंठ पर धारण करके वाग्देवी
एक वियोगिनी तीक्ष्ण आसक्ति में
प्रियतम को बुलाती है
वैरागी प्रियतम ने हृदय गूंथ लिया था
सुई
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सुंदर कार्य एरोन जी
शुक्रिया अनुजीत जी इसका सारा श्रेय वेब डेवलोपेर्स को जाता है उन सबकी मेहनत है
कविताअतुकांत कविता
शाक्य की तलाश
कितनी यायावरी, कितनी दीवानगी और कितना ध्यान, तप
"शाक्य" की तलाश में
भस्मीभूत हुआ ये मुख
धारणाओं के विफल अनुष्ठान
विचारों की अवांछनीय खरपतवार
विकारों की बहती प्रचंड धार
अव्यक्त संवाद
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बेहद उम्दा रचना आपकी रचना बहुत गहन होती है और बेहतरीन भी
आपका प्रेम है