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वियोगिनी का प्रेम - Anujeet Iqbal (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

वियोगिनी का प्रेम

  • 367
  • 5 Min Read

वियोगिनी का प्रेम


चंद्रपुष्प सघन केशों में सजाकर
रति को हृदय में बैठा कर
कंठ पर धारण करके वाग्देवी
एक वियोगिनी तीक्ष्ण आसक्ति में
प्रियतम को बुलाती है

वैरागी प्रियतम ने हृदय गूंथ लिया था
सुई से छिन्न करके
अपनी मेखल में सिंगी के साथ
और बींधे उर की यंत्रणा-मुक्ति
उसी के स्पर्श से संभव है

विरह का अस्त्र भेद देता है
वियोगिनी का अंतस
जैसे काली पिपासिनी छिन्न करती है
खड़ग से नरमुंडों को

विरहाग्नि से प्रक्षालन करते हुए
वो जानती है कि मांस मज्जा की तलहटी पर
सुलगता हुआ शैल द्रव्य
आग्नेयगिरि बनने से पहले
प्रिय का मिलन चाहता है
लेकिन, पंचभूतों की काया
प्रेम की उत्कंठा मात्र से ही
स्वयं को अस्पर्श्य मान लेती है

एक दिन जब उठेगी प्रलयाग्नि
और चौदह भुवन विलीन हो जाएंगे
एक शून्याकार कृष्ण रंध्र में
उस क्षण बचेंगे केवल दो लोग
विरहिणी और प्रियतम
एक दूसरे के प्रेम में डूबे हुए
नितांत अकेले



अनुजीत इकबाल

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Sarla Mehta

Sarla Mehta 4 years ago

उत्कृष्ट शब्दावलि

Anujeet Iqbal4 years ago

सरला आँटी, अनंत प्रेम आपको

Anujeet Iqbal

Anujeet Iqbal 4 years ago

धन्यवाद नेहा जी

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 4 years ago

बहुत खूब

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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प्रपोजल
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माँ
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चालाकचतुर बावलागेला आदमी
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