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"कहीं"
कविता
काश! युँ ही
जन्म और मृत्यु
धुंधलापन ------------------------ इस रात के घने अंधेरे में मैं देखना चाहता हूँ चारों ओर इस दुनियाँ का रंग रूप पर कुछ दिखता नहीं पर मन में एक रोशनी सी दिखती है | बस हर तरफ से नजरें हारकर बस उसकी तरफ मुड़ जाती है दिखती है वह दूर से आती हुई पर उस
सच छूट गया कहीं
यही सच है
कहीं आदत वो कभी आफत हो
शिकायत
प्यार
मैं इसे इशारे समझूं या क्या समझूं?
वो अदीब इकबाल कहीं रह गया
उनसे जो हमारी ये मुलाकात हो गई
आज का दिन
अलविदा 2020
राहत हो जाए
राहत हो जाए,
शायरी
वाह वाह क्या बात है
माँ
कविता का दरबार
मौसम का मिजाज
होली
सात समंदर पार कहीं
"प्रहरी"
मिट्टी का बर्तन
कुंडलिया छंद
परिवर्तन कहीं आस-पास है
कहीं खो जाना है
फागुन आया
ये पूजा ये गायन क्या है?
प्रेत की बोली
यायावर फकीरों के मुकद्दर में कभी कहीं घर नहीं आता
सुकून-ए-ज़ीस्त मयस्सर ही नहीं कहीं आदमजात में
*दूल्हा नहीं दिखता*
*फ़साना याद रह गया*
प्रभु राम नाम का अवलंब
*फहरिस्त*
फ़रेब
बतियाते रहा करो बशर
खामियाँ हर कहीं होती हैं
कहीं कोई ऐब नहीं
कहीं कोई दवा नहीं शिफ़ा नहीं
दर्द -ए -जिगर नाकाम न हो जाए
कविता
संजीदगी अगर कहीं होती है
ख़ामोश रहकर
जीना हमको गवारा न हुआ
वकअत तसव्वुरात की
तुम्हारा येह जमाना नहीं है
राह-ए-सफ़र मिलने वाले रहबर नहीं हुआ करते
मुक़म्मल कहीं कोई सपना
इन्सान नहीं मिलता
कोई अपनों से दूर न रहे
उलझने बढाना कौन चाहता है
अदीब हो गया है
परिंदा कहीं भी जाए शामको वहीं लौट आएगा
तहरीर कहीं नज़र न आई
चाहे जिस घर जा बैठे
पहुंचता कहींभी नहीं है
हम खुदही कहीं रहे नहीं साथ अपने
कब्र किसीकी कभी होती कहीं आबाद नहीं
नज़रिया हर कहीं बदल सकते हैं
दिल्लगी
हमारे हुनर का ना कहीं पर नामोनिशान था
इत्तेफ़ाक और कहीं होता है
मुस्तक़िल नहीं किसीका मुस्तक़बिल
उससे न जा सकाहै आजतलक कहीं कोई बचकर
हसरतें कहीं जाती नहीं हैं
कहीं पहूँच नहीं पाता है
कहीं और कुछ और हो जाएगा
बचपन कहीं कभी किसीका वापस नहीं लौटा
तेरा भगवान राजी है
उसके चाहे बग़ैर कहींपर पत्ता नहीं हिल सकता
कहीं भटक न जाएं हमारे क़दम
कहानी
वह त्योहार
घर अपना
लेख
विवाह कहीं आह ना बन जाए
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