कहानीप्रेरणादायकअन्य
मुझे आज भी याद है जब भी देव उठनी एकादशी आती माँ हमेशा सफेद रंग के कत्थई और चाक से जमीन पर देवता बनाया करती थी। गेरू से घर की सभी देहरी पर डिजाइन बनाया करती थी। और भी बहुत कुछ करती थी। फिर छलनी को जमीन पर बने देवता के ऊपर रख रख दिया करती थी। हम हमेशा माँ को यह करते देखते। उनके गेरू से घर में यह सब करने से हमारे मन में इच्छा जगती की हम भी गेरू से यह सब करें। जो थोड़ा बहुत गेरू बचता हम भी जमीन पर शुरू हो जाते कहीं अपना नाम लिख देते कहीं चांद सितारे बना देते। बच्चा मन था तो कुछ कुछ करने लगते। जिस डंडी पर वह रुई लगाकर डिजाइन बनाने की कलम तैयार की होती हमारी करामात से वह जल्दी खराब हो जाती। फिर हम सारे फर्श को गंदा कर कहीं कहीं गेरू बिखेर चलते बनते। त्योहार का दिन होता तो उस समय माँ कुछ नही कहती। अगले दिन जब उनका सफाई का नम्बर आता तो हमारी क्लास लग जाती।
देव उठनी एकादशी वाले दिन देव कितने उठे पता नही पर हमें शाम का बेसब्री से इंतज़ार रहता। हम माँ के पास बैठकर छलनी के नीचे दिया रख हल्का हल्का सा हाथ लगाकर गाते हुए सुनते ... उठो देव बैठो देव, देव उठेंगे कातक मास, नई टोकरी नई कपास..... उस गाने में हमें कुछ समझ आये न आये पर हम सब मुँह पर उंगली रखकर चुपचाप सुना करते बहुत बार तो जो हल्की सी टोकरी ऊपर उठी हुई होती उसके नीचे झाँककर भी देखते उस जलते दिए को। मजा तब आता जब गीत में सभी भाई बहनों सभी चाचा ताऊ बाबा का नाम आता । अधिकतर लड़को का नाम ही आता था। सब बेसब्री से अपने अपने नाम आने का इंतज़ार करते। मजाल कोई वहां से हिल भी जाये। अगर किसी का नाम आता तो वहां बैठा हुआ बच्चा जोर से चिल्ला कर बोलता, जल्दी आ, तेरा नाम आया, बाकी के बच्चे मुँह पर उंगली रखकर चुप रहने का इशारा करते।
सब होने के बाद प्रसाद का इंतज़ार होता प्रसाद खाकर सब अपने अपने खेल और काम में लग जाते। अगला दिन शुरू होता मम्मी की झाड़ के साथ और उस गेरू की सफाई के साथ जो हमने फैलाया होता। कितना मासूम सा बचपन था अपना देव उठनी एकादशी अभी भी जब भी आती है इन प्यारी सी यादों की दस्तक दे जाती है। अब न वह गेरू रहा और न सफेद चॉक। है तो बस यु ट्यूब पर अपलोड यह गाना उठो देव बैठो देव, देव उठेंगे कातक मास.... - नेहा शर्मा