कविताअतुकांत कविता
धुंधलापन
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इस रात के घने अंधेरे में
मैं देखना चाहता हूँ
चारों ओर
इस दुनियाँ का रंग रूप
पर कुछ दिखता नहीं
पर मन में एक रोशनी सी
दिखती है |
बस हर तरफ से नजरें हारकर
बस उसकी तरफ मुड़ जाती है
दिखती है वह दूर से आती हुई
पर उसमें किसी का चेहरा साफ तो नहीं
कुछ धुंधला सा दिखता है
जी चाहता है ,उसके पास चला जाऊँ
और कहूँ
क्यों मेरे मन के आकाश में
तुम इस अंधेरी रात में भी
तारा बनकर रोशनी की किरणें भेजती हो |
क्यों नहीं सहेजती अपने किरण पुँज को
क्या यह आमंत्रण नहीं है पास आने का
एक चेहरा जो मेरे मन में बराबर
छाया रहता है |
कहीं तुम वही तो नहीं
क्यों नहीं साफ दिखता मुझे
रोशनी की चादर से
खुद को ढँक लेती हो जब मैं पास आता हूँ |
सच कहता हूँ मुझे तुझमें
वही नजर आती है
जो मुझे तुझतक खींच लाती है
तुझे मधुमति कहूँ
या मन की गति
जब भी पास आती हो
फिर जाती है मति
मैं सुनना चाहता हूँ तेरी आवाज
जो शायद कोयल से भी मीठी होगी
मैं देखना चाहता हूँ तेरी आँखें
जो हिरण से भी ज्यादा चँचल है
काश तू ठहर जाता
मेरी आँखों की तरह ,जो तुझपर ठहर गयी है
पर तुझे कैसे रोकूँ
तू ही तो समय है
जो कभी रूकता नहीं
झुकते हैं आसमान ,तू कभी झुकता नहीं
बस स्थिर या गतिशील
पर तू समय है
जहाँ नहीं कोई नहीं पंचशील |
कृष्ण तवक्या सिंह
05.08.2020;