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"जब"
कविता
कोई दिल में जब उतरता है
अहम
गुलाम की हसरते चाहत
जब कलम चलती है
माँ से जब भी मिला हूँ खुदको बिसरा हूँ
जब हम किसी के प्यार में होते हैं तो
जब भी छुओगे मिलेगी नमी मुझमे
जब कोई धोखा देता है
जब जन्म लेती है "बेटी"
जब राम नही बन सकते
जब कोई बात दिल में घर कर जाती है
कल मिलोगी जब तुम मुझसे...
ज़जबात
तुझे मजबूत बनना होगा
आजकल जब भी
हाय ये कैसी मजबूरियाँ
कविता जन्म लेती है तब,जब
अजब गजब शादी
मंज़िल
एक दौर था जब मां जिंदा थी
प्रश्नचिह्न
जब मैं सोचू
तू ही सही है
तू ख़ुद यहाँ पर बशर जबतक किसीके काम का नहीं
बशर ज़ेरे-ए-असर आकर दामने-कोह के सहन में बस गया
दिल का बुरा नहीं बशर आदमी वक़्त का मारा है
पीछे रहबर के क्यूं चलें बशर जब हम अपनी ही डगर चलें
जबर्दस्ती नज़र आती है
घुली अजब सी भांग
कैसे कहें के वो हमारा हमसफ़र हमदम नहीं
सब्जबाग
तन्हाइयों की हैं बशर मजबूरियाँ बहुत
अंतस् में जब राम विराजे 🙏
जियेबग़ैर बसर हो जाएगी
आसमानों से बाते करने लगे हैं
हरबात जबानी पूछने लगे हैं
तू ही सही है
रातों की नींद गंवाई है
जब रखवाला ही जुआरी था
तल्ख़ियाँ बढने से पहले
हालातों से मजबूर
हा मैं मजदूर बहुत मजबूर हूँ
जब तलक "बशर" बच्चा था
अभ्यागत"....तुम आए जब से, हो उदासीन.....
बड़े खुश थे जब बच्चे थे
इन्सान से जोरोजब्र नहीं
तेरे अहसास के मयकदे जाते हैं
जब सच अपनी सफाई देने लगेगा
मसर्रतें जीत के दीदार की
चुगलखोर से दूरी हो
कहानी
"आधा मुनाफा"
महजबीं बाई 💐💐
" मिलन की बेला " 🍁🍁
लेख
इंसानियत
अतिथि देवो भव
मजबूर या बेपरवाह इश्क
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