कविताअतुकांत कविता
मैं लक-लकाती भट्टी में तपकर
अपना ही खून पसीना पी कर
तैयार हुआ वो लोहा हूँ
जो पाषाण फोड़ महल गढ़े
जर -जर भवनों को तोड़
फिर नव निर्माण करे
सुख भर औरों के जीवन में
खुद का जीवन बर्बाद करे
क्या बताऊ
मैं कितना अभागा इंशन हूँ
की अपने सपने समझ मैं
गाँव से शहर चला आया
चमचमाती सड़के ,
गगनचुंबी इमारतों के संग
वाहन खूब बनाए पर
मेरी दुर्दसा देख
किसी को दया न आई
मैं लड़ता रहा सदैव
अपने अंतर मन से
भूखे पेट रहा पर
हाथ फैला न कभी
अंत में अंतहीन गुमनाम मरा
जिसका अस्तित्व मिट्टी से मिट्टी में मिला
जो आवाज उठा न सका हक की
मैं ऐसा अभागा इंशन हूँ
हा मैं मजदूर बहुत मजबूर हूँ ||
रचनाकर
नीरज मिश्रा " नीर" मध्य प्रदेश