कवितालयबद्ध कविता
अभ्यागत" तुम आए जब से, हो उदासीन,
लगते हो कुछ उद्विग्न मन, कुछ मन मलिन,
नितांत ही तुम लग रहे हो अति अक्रांत,
लगता हैं, तुम जीवन के हुए नहीं शरणागत।।
अभिलाषाओं के समंदर में ऊँचे-ऊँचे मौजा,
लगते हो, तनाए जा रहे हो भावनाओं में,
फिर देखते हो इधर-उधर, सुख मिले नितांत,
फंसे हुए द्वंद्व में बने हो अभी तक तथागत।।
अभ्यागत, वेदनाओं के लहर को हृदय में लिए,
चाहते हो त्राण, तभी लगते हो जैसे हो निष्प्राण,
कुछ तो हैं, देखते हो अपलक हो कल्पांत,
चाहते भी हो, जीवन के रस का करना स्वागत।।
सहजता से परे, बनाए हुए छवि का आवरण,
संकुचित होकर चाहते हो निर्मलता का वर,
जीवंत भावों का भुलाए बैठे हो सही वृतांत,
उलझे हुए हो जैसे, यही तो हैं पथ का बाधक।।
वंचना के बेड़ियों में जकड़ कर, झूठी मुस्कान,
मलिन हुई भावनाओं में लिपटकर सिसकते हुए,
बीतते हुए लमहों के किनारे पर हो तुम अशांत,
यह जो छिपी सिसकियां हैं, तुम्हारा हैं अभ्यागत।।
संदेह के मखमली गहनों से लदे लिबास ओढ़कर,
मखमली अहं के बंधन से बंधन अटूट जोड़कर,
फिर चाहते हो जो आँखों से, हो जाओ तुम शांत,
समझ के परे तेरी आँखों की भाषा हैं तथागत।।