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"इन्सान "
कविता
जिसदिन इन्सान सुधर जाएगा
किस तवील-ओ-कद का है इन्सान
किरदार इन्सान का ज़ीस्त में असली सरमाया होता है
नेकदिल इन्सान भी बशर यहाँ गुनहगार हो जाते हैं
*हमें बशर हरसू इन्सान में इन्सान नज़र आता है*
*इन्सान का बस आना जाना रहता है*
*तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का इन्सान हो*
न इन्सान बदलेगा न दहर बदलेगी
इन्सान बेसबब परेशान रहता है
इन्सान तो आख़िर इन्सान होता है
इन्सान नहीं मिलता
इन्सान की रगों में खून काला बहने लगा है
फ़ितरत बदलती नहीं इन्सान की
इन्सान
इन्सान की क़ीमत कहाँ
इन्सान छोड़ेगा नहीं
इन्सान की औक़ात उसकी गैरत में होती है
इन्सान बस खुश रहा करे
ज़रूरतें बदल जाती हैं इन्सान की
इन्सान है ना-फ़रमाँबरदार
समझदार सभी इन्सान हो जाए
इन्सान से जोरोजब्र नहीं
एक मर्तबा इन्सान बनकर तो बताओ
इन्सान वही होता है
मशक़्क़त इन्सान की
गुस्से में इन्सान
इन्सान कभी वालदैन से बड़ा हो नहीं सकता
पहले किसी ज़माने में इन्सान था
रंग ला रही है मेहनत इन्सान की
इन्सान क्यूँ इतना परेशान रहता है
इन्सान कहाँ है
इन्सान का इम्तिहान हालात लेते हैं
इन्सान ग़लत रस्तेपर चल पड़ता है अक़्सर
इन्सान को इन्सान से मिलाये तालीम
छोटी-सी है मुसाफ़िरत इन्सान की
इन्सान सच्चा बिगड़ रहा है
आदमी इन्सान हो जाए
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