कवितालयबद्ध कविता
आज फिर.....
हो गई बरसात, आँँखों से
आज फिर.....
तूने लफ्जों से, यूँँ वार किया
आज फिर.....
ठेस पहुँँचाई, दिल को तूने
आज फिर.....
घुँँट के रह गई, खुदमें !
आज फिर.....
भनक ना होने दी, दर्द को
आज फिर.....
होठों पर मुस्कान लिए, छुपा ली
आज फिर.....
कहती भी, क्यों भला?
आज फिर.....
समाज तो दोषी, मुझे ही ठहराएगा
आज फिर.....
कलंक का थप्पा तो, नारी ही ढोते आई
आज फिर.....
पुरुष तो निष्कलंक ही रहा है, हमेशा से
आज फिर.....
कहाँ करती है? नारी भी सम्मान ! नारी का
आज फिर.....
नारी ही उठाती है, नारी पर आवाज़
आज फिर.....
कौन समझेगा? दर्द को मेरे
आज फिर.....
इसलिए आँसू को छुपा ली, पानी कहकर
आज फिर.....
हाँ ! थोड़ी लाल हुई थी, आँखें
आज फिर.....
तो क्या हुआ, यही तो होता है अक्सर !
आज फिर.....
"ना हो बरसात, आँखों से *फिर कभी.....
नारी! बनो सहारा नारी का *आज से ही....."
@चम्पा यादव
13/10/20
नारी की उस विवशता को बाखूबी उकेरा है, जहां उसकी इच्छा -अनिच्छा कोई महत्व नहीं रखती।
जी...धन्यवाद।
शीर्षक -"भावनाओं के बारिश में भिगते "आज फिर" में फिर भी सूखती नारी की व्यथा" 1)"आज फिर' विधा कविता 2)रचना -चम्पा यादव 3) प्रकाशक -साहित्य अर्पण एक पहल 4) प्रकाशन की तिथि 13/10/20 नारी समर्पण के भावना से संसार चलाती है लेकिन उसका पति ही जब उसकी वेदना नहीं समझता तो हर पल उसके मन में उथल पुथल होते रहती है कि पति ही नहीं समझेगा तो मेरा कौन है? घर की स्त्री भी नहीं समझ रही उसके दुःख को ये भी पीड़ा मन में है Iयदि किसी के नजर में उसका दुःख आ भी जाए तो वह खुद को किसी के सामने निर्बल जताना नहीं चाहती, इसलिए आँसू को छिपाया पानी कहकर Iउद्वेलित मन को होठों पर हँसी लाकर जबरदस्ती खुश होने का प्रयत्न भी करती है I यद्यपि इस कविता में कवयित्री को क्या कहना है वो भी भ्रमित करता हैं I इधर सब से दुःख भी छुपा रही और उधर मेरा कोई नहीं यह भी कह रही है I अंत में खुद को खुद ही मजबूत करने का आग्रह भी है Iयदि रचनाकारा इसमें कोई भी एक बात पर टिकी रहती तो पढ़ने वालों का उत्साह ज्यादा रहता I एक ही शब्द को बार बार दोहराना भी उचित नहीं लगा I वैसे रचना अवश्य मन को कही ना कही कुछ सोचने पर भी मजबूर करती है I
शुक्रिया.... नीलीमा जी आपने बहुत अच्छी समीक्षा.. की है। पर आपने रचना के अर्थ को सही से समझ नहीं पाए...अथार्त एक नारी को ना चाह के भी मजबूरन रिश्तो को निभाना पड़ता है क्योंकि हमारा समाज अभी भी नारी के प्रति उतना विकसित सोच नहीं रख पाया है...अभी भी नारी की गलती हो चाह ना हो,पर दोषी उसे ही ठहराया जाता है।....
जी, सही कहा आपने
स्त्री के मर्म को सरल अंदाज में बहुत ही खूबसूरती से बयां किया है।। सच मे स्त्री के दर्द को कोई नही समझ पाता है।। आपकी रचना बहुत ही सुंदर है।।
जी...शुक्रिया... ममता.. जी..सही...कहा... आपने...।
स्त्री के मर्म को सरल अन्दाज मे खूबसूरती से व्यक्त किया है।उसकी सहनशक्ति को दबे पावं ब्यक़ किया है।तथा नारी पर प्रहार भी किया है कि नारी का दर्द नारी को समझना होगा।
जी...बहुत.. बहुत.. शुक्रिया... प्रियंका... जी...।
औरतों की मानवीय संवेदना और उनकी आंतरिक पीड़ा को मार्मिक पंक्तियों में रेखांकित किया है। एक औरत की पीड़ा को औरत ही समझ सकती है लेकिन वह भी नहीं समझती! यह सोच व्यथित करने वाली है। हृदय की पीड़ा को ना समझने का अवसाद बखूबी उकेरा है।। नारी ह्रदय के अंतर्द्वंद को दर्शाती संवेदना से परिपूर्ण रचना है। वर्तनी की अशुद्धि पढ़ने में व्यवधान उपस्थित करती है ,जैसे; घुट के स्थान पर घूंट, ठप्पा के स्थान पर थप्पा और दुख पी ली दुख पुलिंग है। टिप्पणी को कृपया अन्यथा ना लें।
जी..शुक्रिया... मैं... आगे से ध्यान.. रखूँगी...।
नारी के चरित्र का काफी शशक्त वर्णन किया आपने..?? बेहद शानदार रचना है..! परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आज फिर.. का प्रयोग कई जगह अनावश्यक किया गया है! हर एक पंक्ति के बाद ही, कम से कम दो पँक्ति के बाद आज फिर का उपयोग किया जाता तो पढ़ने के आनंद में तरोताजगी का एहसास होता..! शब्दों का चयन काफी अच्छा है..?? अच्छी रचना हेतु बहुत बहुत शुभकामनाएं...??? ऐसे ही निरन्तर लिखते रहे और आपके अपने साहित्य अर्पण परिवार से जुड़े रहें..! शुभकामनाओ सहित धन्यवाद..!??????
जी..शुक्रिया... सही.. कहा.. आपने...।
नारी ही नारी की होती है दुश्मन,ये बात है पुरानी,नारी ही नारी के दर्द को समझ सकती है ,बस समाज में लाना है कुछ बदलाव| आज भी नारी छिपा लेती है खुद के आँसू,लाल सुंदर नयन को देख पूछे कोई ,कह देती है कछरा गिर गया था कोई , वाह! रे नारी तूने क्या प्रतिभा पाई |नारी के दर्द को, उसे न मिलने वाले सम्मान से सम्बधित रचना है |?
शुक्रिया.... रानी... जी..।
समाज में नैतिकता के दोहरे मापदंड को लेकर नारी के दर्द को महसूस कराती सशक्त रचना। नारी के स्वाभिमान को जगाने का प्रयास करती और नारी के द्वारा दूसरी नारी की मदद की आवश्यकता को महसूस कराती सुंदर पंक्तियां। हां, 'आज फिर' का दोहराव कुछ कम किया जा सकता था।
जी...शुक्रिया... अमृता... जी...सही... कहा.. आपने...।