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दुख - नेहा शर्मा (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

दुख

  • 271
  • 4 Min Read

दुख क्षणभंगुर है, और मन वहम
उड जाता है धुएं की तरह
बस उसी और जिस और हवा बह रही हो।
कभी कभी होश खो बैठता है।
डूब जाता है दुख के सागर में
फिर समय हँसता हुआ आता है।
दिखाकर घड़ी जिम्मेदारी की
आंसुओं को हंसी में बदल देता है।
सहला देता है जख्मो को समय का दिलासा देकर
हां अट्टहास ही तो करता है यह मन हम पर
देखता है कि कैसे बदलता है भाव
दुख के सागर में जब गोते लगाते हैं।
तब बस कोई किनारे की उम्मीद होती।
जब मिल जाता किनारा
तब समझ लेते हैं उसे तस्सली
पर तसल्ली किससे मिली दुख से
पर दुख तो क्षणभंगुर है
कहा था ना मैंने ऊपर
क्योंकि इस दुख से उस दुख तक
बीच में सुख आता है
बस एक छांव की तरह
और सीखा जाता है।
सिक्के के वो दो पहलू
जो हर कोई नही समझता - नेहा शर्मा

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Sudhir Kumar

Sudhir Kumar 3 years ago

विलक्षण

मुरली टेलर

मुरली टेलर""मानस"" 3 years ago

बहोत खु बसूरत कविता

Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

समय ही मलहम है

Champa Yadav

Champa Yadav 3 years ago

बेहतरीन.... रचना.... दुख और सुख....सिक्के के दो पहलू है

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

सुन्दर..! समय सभी घावों को हल्का करने का कार्य करता है ..!

Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

अविरत,,,भर देता है और दर्दों को भुला देता है

Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

समय एक ऐसा मलहम है जो सारे ज़ख़्म

Poonam Bagadia

Poonam Bagadia 3 years ago

वाह बहुत सुंदर ...! सही कहा आपने इस दुख से उस दुख के बीच क्षण भर का सुख भी आता है...!

शिवम राव मणि

शिवम राव मणि 3 years ago

बेहतरीन मेम अच्छा लिखा आपने

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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