कविताअतुकांत कविता
दुख क्षणभंगुर है, और मन वहम
उड जाता है धुएं की तरह
बस उसी और जिस और हवा बह रही हो।
कभी कभी होश खो बैठता है।
डूब जाता है दुख के सागर में
फिर समय हँसता हुआ आता है।
दिखाकर घड़ी जिम्मेदारी की
आंसुओं को हंसी में बदल देता है।
सहला देता है जख्मो को समय का दिलासा देकर
हां अट्टहास ही तो करता है यह मन हम पर
देखता है कि कैसे बदलता है भाव
दुख के सागर में जब गोते लगाते हैं।
तब बस कोई किनारे की उम्मीद होती।
जब मिल जाता किनारा
तब समझ लेते हैं उसे तस्सली
पर तसल्ली किससे मिली दुख से
पर दुख तो क्षणभंगुर है
कहा था ना मैंने ऊपर
क्योंकि इस दुख से उस दुख तक
बीच में सुख आता है
बस एक छांव की तरह
और सीखा जाता है।
सिक्के के वो दो पहलू
जो हर कोई नही समझता - नेहा शर्मा
वाह बहुत सुंदर ...! सही कहा आपने इस दुख से उस दुख के बीच क्षण भर का सुख भी आता है...!