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"कद"
कविता
कुछ सुस्त कदम, कुछ तेज कदम
कद
प्रकृति की गोद मे....
ये तज़ुर्बा कुछ और है
वो अजनबी
दो कदम तुम भी चलो
है ऐसा कोई
दो कदम तुम भी चलो
पहला पहला कदम
यायावर फकीरों के मुकद्दर में कभी कहीं घर नहीं आता
हमारा ही हाथ है
किस तवील-ओ-कद का है इन्सान
नेकदिल इन्सान भी बशर यहाँ गुनहगार हो जाते हैं
हमें न बताकर आए
*रहगुज़र मुकद्दर में ''बशर'' तेरे लिखा है*
*शराब ने डुबोया है* म
मुकद्दस आयतें हो गईं यादें हबीब की
वोट की खातिर पखारें कदम
*कदमों में जमाना होता है*
कद काठी किरदार की बड़ी हो गई है
होश में रहता हूँ
झूमती है कहकशाँ
मुकद्दर है 'बशर' का परेशाँ होना
मतलब निकल जाए तो कदर कौन करता है - sumit arya shayari - शायरी
मुकद्दर में नहीं गुफ़्तगू
मसर्रतों से ख़ौफ़ज़दा
सामने वाले का कद छोटा दिखता है
हमारी बेकदरी का है मलाल उनको
मुफ़लिस की बस्ती में चलकर दुआ करें
मुकद्दर को बदलने की ख़्वाहिश रखते हैं
मफ़रूर कहे चाहे कोई मग़रूर कहे
कहानी
छल
मिट्टी से तकदीर संवारी
बात बस दो कदम की
बस ड़ो कदम
बस दो कदम
लौटते कदम
नन्हे कदम
साहसी कदम
भी दो कदम
लेख
आयुर्वेद की ओर दुनिया के बढ़ते कदम
विश्व पुस्तक दिवस
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