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"बनकर"
कविता
मैंने पूछा चाँद से
जिंदगी
धुंधलापन ------------------------ इस रात के घने अंधेरे में मैं देखना चाहता हूँ चारों ओर इस दुनियाँ का रंग रूप पर कुछ दिखता नहीं पर मन में एक रोशनी सी दिखती है | बस हर तरफ से नजरें हारकर बस उसकी तरफ मुड़ जाती है दिखती है वह दूर से आती हुई पर उस
मैं और वह
सूरज का यह सुनहरा खत
सन्नाटे में तैरता सा कोलाहल
मन की वे खेल खिलौने
हम पास तो हैं पर साथ नहीं
सड़क का दर्द
एक अदद जिंदगी
प्रेम
मनवा रे
बिखरते चंद्रबिंदु
धुँधलाई सी, भरमाई सी....
घर
जिंदगी ऐसे ही चलती है
आँसू, खून, पसीना
रात की दीवार
दूर ना जाना
पेड़ बनकर नहीं तलवार बनकर
धुँधलाई सी, भरमाई सी....
सड़क का दर्द
ज़िन्दगी के रंग
कतरा-कतरा, बूँद-बूँद
आपदा में अवसर
सन्नाटे में तैरता सा कोलाहल
घर
कभी नही मरुँगी। मैं
कभी नही मरूँगी मैं
क्या धरती बस इंसान की है ?
अभिव्यक्ति भावों की
धुँधलाई सी, भरमाई सी....
सड़क का दर्द
सिले होंठ
मेरे घर आना जिंदगी
राधा की पायल बोल उठी
मैंने पूछा चाँद से
मेरे घर में माँ आयी है
मैं महालक्ष्मी धन की शक्ति
मेरी प्यारी मां
एक दौर था जब मां जिंदा थी
मैं लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ
मेरे घर आना जिंदगी
मेरी उल्फ़त, मेरी चाहत
हयात क़ज़ा की मोहताज बनकर रह गई है
*मुसाफ़िर बनकर रहना है*
हमने बच्चा बनकर रहना चाहा
अक्ल-मंद बनकर जियें
लहू पसीना बनकर रोमरोम से निकल आता है
बूंद बनकर सागर में समा जाना
Tumhara aana abhi baaki hai
एक मर्तबा इन्सान बनकर तो बताओ
रंजोग़म का नदीम बनकर जीना हमें मंज़ूर नहीं
कहानी
औरत बनकर मन भर गया
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