कवितालयबद्ध कविता
ये कलयुग का इंसान है ...
आज इंसान ही इंसान का दुश्मन है ...
बाहर है अपनापन , अंदर से मैला मन है ...
छल कपट कूट कूट के भरा पड़ा है ...
बेईमानी का चोला पहने शान से खड़ा है ...
पहले अपनो का विश्वास व प्यार जीतता है ...
फिर अपनो से ही विश्वासघात करने लगता है ...
भूल जाता है वो अपनो के एहसानों के तले दबा है ...
जो भी बना है , उनके ही दम पर तो वो लायक बना है ...
ये भूलकर आज उनको ही लात मारने चला है ...
भूल गया है जो शान- शौकत है , जहां तू उनकी ही बदौलत खड़ा है ...
पीठ पीछे वार करके , झूठी मित्रता का दिखावा करते है ...
कुकर्म , धोखा , द्वेष के सहारे मानवता का गला घोंटा करते है ...
कही न कही खुद ही खुद के लिए गड्ढा खोदने चला है ...
तुझे दर्द का पता चलना है क्योंकि तू खुद को अंदर से ही खोखला करने चला है ...
ये सतयुग नही , ये कलयुग है ...
आज इंसान ही इंसान का दुश्मन है ...
ममता गुप्ता
जी सत्य कहा इंसान ही इंसान का दुश्मन है।
आदरणीया नेहा जी धन्यवाद