कविताअन्य
जब मैं छोटा था,
कुछ भी नहीं समझता था,
तब भी बहुत कुछ वो समझ जाते थे।
मैं औंधे मुंह गिरता,
उठता,
फिसलता,
मिट्टी से सने मेरे पैर हो या हाथ,
मुँह में लगी मिट्टी की महक पूरे बदन से लिपट जाती थी,
मेरे मुंह से सिर्फ पापा निकलता था,
और वो दौड़ कर आते थे।
जब मैं स्कूल जाने लगा,
मुझे याद है,
मुझे कंधों पर बिठाते थे,,,
शरारत की शिकायत बन्द होने का नाम ही नही लेती थी,
मेरे मित्र गोलू मोलू बुलाते थे,
गुब्बारे वालो को देखकर मैं जोर से चिल्लाता,
तब जा के एक गुब्बारा दिलाते थे।
जब थोड़ा और बड़ा हुआ,
ख्वाहिशें बढ़ी,
जरुरते बढ़ी,
मैं कुछ भी न कहता,
जब सब अपने शौक बताते थे,
मेरे पापा तब भी,
बिना कहे मेरे शौक़ पूरे कर जाते थे।
कॉलेज में दाखिला लेते वक़्त,
थोड़ा डर जाते थे,
कैसे पढ़ेगा,कैसे रहेगा,
एक 18 साल से ऊपर की उम्र के बेटे की चिंता हर पल ढोते जाते थे,
न हो कोई कमी,
इसलिए न जाने क्या क्या नहीं कर जाते थे,
अपने पसीने की हर एक बूंद से निकली,
मेहनत को वो मेरे पढ़ाई पर लगाते थे,
हाँ,
अपने शौक़ो को ताक़ पर रखकर,
मेरी तकलीफ़ो को बिना बोले सह जाते थे।
लोग कहते रह गए,
अच्छा या बुरा,
लेकिन
जब भी किसी ने पूछा,
क्या करते है आपके पिता...
अब क्या बताऊँ उन्हें,
कि शायद सौदागर हैं
तभी तो,
वो अपनी खुशियां बेच कर ,
मेरी खुशियां खरीद लाते थे।
✍️ गौरव शुक्ला'अतुल'©
Very nice sir 👌👌 aapne kamal ka likha hein heart touching lines
शुक्रिया आपका 🌺
वाहहहहह आपकी कविता दिल को छू गई सर। बधाई हो
शुक्रिया सर❣️