कवितालयबद्ध कविता
हम सभी आज लाचार से हैं
बँटे आज हम जाने क्यूँ
दो अलग-अलग कतार में हैं
जिंदा हैं, फिर भी सभी
बेजान से हैं
जानते हैं सब मगर
खुद से ही अनजान से हैं
पहली कतार,
घर की लक्ष्मण-रेखा में
होकर कैद सी
कर रही जहाँ
डरावनी सी एक सिहरन,
एक घुटन और एक उलझन,
मन में कुछ घुसपैठ सी
कुचली-मसली सी
कोई तृष्णा,
अपने मोहभंग से दंग
वापस लौटती सी
कोई मृगतृष्णा,
आहत होते अहं से,
जबरन ही पाले हुए
एक बहम से
उपजी हुई सी कोई कुंठा,
उलझी हुई सी कोई मंशा
बन निराशा, एक पिपासा,
शायरी में, डायरी पे,
कागजों, मोबाइलों से
अलग-अलग रूपों में
यूँ पल-पल ढलकर
बूँद-बूँद कर
बाहर आ रही हैं
इंसान की कुछ
दबी हुई सी हसरतें,
कुछ छुपी हुई सी फितरतें
पली हुई, पाली गयी कुछ नफरतें
गुमराह सी करती हुई कुछ गफलतें
हम सबकी साझी सोच की, बन किस्मतें
वापस आ रही हैं
मगर दूसरी ओर, उस कतार की,
इस वैतरणी की मँझधार की,
रामकहानी बिल्कुल जुदा-जुदा सी है
भूख के इस कड़वे सच के साये में,
इस बेचारी, लाचारी के सरमाये में
रोटी ही बस लगती आज खुदा सी है
अपने घरों से दूर-दूर,
होकर भूखे पेट के हाथों मजबूर,
फाँकते राहों पर धूल,
खाँसते हैं, छींकते हैं, पर मजबूर
देश के लाखों मजदूर,
खोते हुए वजू़द को तलाशते से
अनायास ही आ धमके,
इस विनाश में से
खोजते रोटी के टुकड़े,
अपनी-अपनी जडो़ं से
उखडे-उखडे़,
अपनी छोटी सी दुनिया से
यूँ उजडे़-उजडे़,
नहीं जानते वो किसको,
कहने जायें अपने दुखडे़
दर-दर भटकते, बंजारा से,
कुछ मुठ्ठी भर मदहोश,
सफेदपोश लोगों को
लगते कुछ आवारा से,
मन में खौफ़,
सिर पर बोझ,
गोद में बच्चे,
खाते धक्के,
पाँवों में पड़ते छाले,
मूँदें आँखें किस-किस से
और किस-किस को सँभालें
हाँ, भोंक दिये हैं, सब भाले
देकर किस्मत का नाम यूँ, ये
बस इनके ही वजू़द में,
ओ दुनिया के रखवाले,
हाँ, कुछ लमहों की खता
एक पूरी सदी भुगतती है,
कुछ वीसाओं, कुछ पास्पोर्टो की
गलती की त्रासदी से
इस राशन कार्ड पर लिखी
पीढियाँ ही निपटती है
हाँ, मानवता उस बेरुखी की
ऊँची दीवारों के पीछे,
आसमान की छत के नीचे,
दुनिया के सबसे गुमनाम कोनों में,
धरती के सख्त बिछौनों पे,
सिमटती है
कुछ ढकी-ढकी,
कुछ उघडी़-उघडी़,
कुछ तुडी़-तुडी़,
कुछ सिकुडी़-सिकुडी़
अनजानी सी राहों पर
बिखरी-बिखरी
सचमुच बिल्कुल
उजडी़-उजडी़,
कुछ चंगी, कुछ
अधनंगी सी बाहर आई
कुछ बिल्कुल नंगी सी
कड़वी सच्चाई,
भूख के मैले-कुचैले,
मटमैले से दामन में,
होकर कुछ मजबूर,
आज लिपटती है
द्वारा : सुधीर अधीर