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"बहुत"
कविता
हमसफ़र
विधुर पुरुष 2
#उस शाम हुई बरसात बहुत
उस रात हुई बरसात बहुत
साज़िशें बहुत की उसने मुझे ढाने की
अधूरी दास्तान
बहुत कुछ है हमारे बीच
वो सतरंगी पल
सचमुच फिसलन बहुत है
बहुत हुआ कि अब कुछ कहा नहीं जाता
2020 तुमने सिखलाया भी है बहुत कुछ
पिता तब बहुत रोता है
याद बहुत आते
बहुत उम्मीद है
याद बहुत आए
गाँव ! तुम्हारी बहुत याद आती है
गाँव ! तुम्हारी बहुत याद आती है
याद बहुत आए
बहुत याद आए
बहुत बोलती हैं ये आंखे तुम्हारी
बहुत याद आती
खुले आसमानों से जिंदगी को देखना, बहुत ही खूबसूरत सा दिखाई देता है।।
मजा बहुत आता है।
# बहुत घुटन है
जो कुछ नहीं करते बहुत कुछ करते हैं
सचमुच फिसलन बहुत है
बहुत कोशिश की मैंने
✍️You were the only one, my father
सुशब्द बनाते मित्र बहुत
रास्ते सफ़र के बहुत हमने बदल बदल कर देखे
आदमी, आदमी की बू से परेशाँ है बहुत
तन्हाइयों की हैं बशर मजबूरियाँ बहुत
दिलों में गर्माहट बहुत है
दरबदर होकर घरकी बहुत याद आती है
मछलियों को बहुत गुमान हुआ है
मैंने हिम्मत बहुत दिखाई है
बहुत जल्द दूर हो जाते हैं
हा मैं मजदूर बहुत मजबूर हूँ
हासिल सुकूने-क़ल्ब बहुत जहं होता है
बहुत कुछ खोना पड़ता है
जज़्बात भी अपने पास रखा करो
मसर्रतों के चुरा लो अवसर थोड़े बहुत
बचपन अक़्सर बहुत याद आता है
कहानी
रुकी हुई ज़िंदगी भाग-३
हां मुझे बहुत डर लगता है..
संकल्प
माँ के चरणों में बहुत रोएँ…
लेख
हैं शिकायतें बहुत..
आत्महत्या - एक बहुत बड़ी समस्या
मेरी यह तस्वीर भी बहुत कुछ कहती है
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