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"नज़र"
कविता
नज़रिया
"चाँद से हुई बातचीत"
एक नया जीवन
मुझे वो नज़रें बदलनी हैं
ज़माने की नज़र में
दिल पर ज़रा हाथ रख दो
मैं
मुकाम भी अपना बिना बताए हुए चला गया
मेरी किसीसे कोई जफ़ा नहीं
जबर्दस्ती नज़र आती है
*हमें बशर हरसू इन्सान में इन्सान नज़र आता है*
*नज़रिया बड़ा हो जाता है*
उसीकी नज़र-ए-नायत दिखाई नज़र आती है
*उन्हींसे दूर रहना उन्हींको चाहना*
*नज़रें उसने घुमालीं दिल हमारा बैठगया*
खुश नज़र आने लगे
दीदार ए यार 🥰
जद अपनी "बशर" अपने दस्तरस में नहीं
शराब पीकर न ख़्वाब देखा कर
खेलते नज़र आते नहीं बच्चे आजकल
*नज़र-ए-'इनायत उसकी*
चाह तुम्हारी न होगी
साहिल तक आ गए
प्यारे गिरधर गोपाल नज़र आए
फ़ितरत हमारी है
नज़र नहीं आता
पीरी में सब साफ नज़र आता है
तेरी नज़र पे है तू क्या देखता है मुझमें
हिंदुस्तान नज़र आता है
ईद भी आकर चली गई
मंज़िल ख़्वाब नज़र आने लगे
जिस नज़र से देखेंगे दुनिया वैसीही दिखाई देगी @ "बशर "
वक़्त ए तकलीफ़ नज़र आते हैं
तहरीर कहीं नज़र न आई
रूतबा उसकी पहचान नज़र आता है
उदासियां उन्हें नज़र नहीं आतीं कभी
खुदको व इस क़दर भी ना गिराओ
घरबार कोई क्या देखे
माशूक रब नज़र आने लगे
नज़रिया हर कहीं बदल सकते हैं
मैं तेरा दीवाना हुआ
जेरो-ज़र पर नज़र रखता है @"बशर"
उनको याद रखना वहम नहीं था
उर्दू ग़ज़ल
लेख
मैं ग़लत हूं, कुछ की नज़रों में..
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