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"ख़ामोश"
कविता
मैं ज़िन्दा हूं, बेजान हूं।
ख़ामोश रहकर बशर वो अश्आर हज़ार कह देते हैं
सालती है बशर हमको येह ख़ामोशी औलाद की
किरदार इन्सान का ज़ीस्त में असली सरमाया होता है
मुस्कुराते रहो बशर
ख़ामोशी से बेहतर लफ़्ज अगर बशर हों तो बोलिए
मसाइल कुछ अयाँ नहीं हैं
सुख़न जो ख़ामोशी से अयाँ होता है
ख़ामोशी से बड़ा जवाब नहीं
बदनामी शोर मचाकर आती है
ख़ामोश रहकर
ख़ामोशियों में शोर पुरज़ोर होता है
ख़ामोशियों से गुरेज़ कर
बेहतर ख़ामोशी तेरी आज
हरबात जबानी पूछने लगे हैं
तन्हाई की ख़ामोशी से गुफ़्तगू होती है
हद होती है
बुराई में सियासत दिखाई देती है
जुबान अनपनी ख़ामोश रखनी पड़ी
ख़ामोशी से हमें डर लगता है
अल्फ़ाज से नहीं
बस ख़ामोश रहो
ख़ामुशी ने सब ज़ाहिर कर दिया
ख़ामोशियों से मुहब्बत का गुमाँ कर बैठे
ख़ामोशी से बड़ी कोई बात नहीं
आवाज़ को ख़ामोशी से समझा जा सकता है
लफ़्ज हमारे अनसुने ही रह गए
ख़ामोशियों से मिले घाव भी जल्द नहीं भरते
किये जा रहे थे बसर कर के ख़सारा
सदाओं में है ख़ामोशी
सदाओं में है ख़ामोशी
तुम्हारी दुनिया से निकलकर ही चला गया
लोग दिल वाले नहीं हैं
लेख
ख़ामोश ही रहना अच्छा है।
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