कवितागजल
ज़िंदगी
दुश्वार राहों में भी कभी मिल ए ज़िन्दगी
ये ज़ख़्म मेरे पांव के तू सिल ए ज़िंदगी
सरग़ोशियां भी अब तो यूं ख़ामोश हैं तेरी
दहशतज़दा सा क्यों है मेरा दिल ए ज़िंदगी
सुन लूं किसी के दर्द की बातें मैं अनकही
कर दे मुझे तू इतना सा काबिल ए ज़िंदगी
मरहम हंसी का बांटा है सौगात की तरह
बस ये है मेरा आज का हासिल ए ज़िंदगी
वीरान रास्तों में थी दुश्वारियां कई
फिर भी रही है तू ही तो मंज़िल ए ज़िन्दगी