कविताअतुकांत कविता
देखती हूँ हाथों की उन लकीरों को
सोचती हूँ कैसे आड़े टेढ़े धागे
ईश्वर ने पिरो दिए हैं हाथ में
बांध दी है हमारी किस्मत उन्ही धागों में
जिन पर विश्वास करो तो सब कुछ
न करो तो कुछ भी नही।
न जाने क्यों आज ये धागे
ऐसा लग रहा है
जैसे कोई खींच रहा है।
हमारे हाथों की हथेलियों से।
हम चाहकर भी उसे नही रोक पाए रहे
इस डर से की टूट न जाये कहीं।
जो हाथ सिर्फ
उन रेखाओं के देखने के लिए उठते थे
उठ रहे हैं अब दुआओं में।
उस खींचते धागों को रोकने के लिए
जिनमें जीवन अटका है हमारा।
वो सुनकर यूँही नही बैठेगा।
उसने द्रोपदी का चीर बढ़ाया था।
बढ़ा देगा उन लकीरों के धागों को भी।
बस यही विश्वास लिए हर घर में अब
उम्मीदों का दिया कायम है। - नेहा शर्मा
सुबह की शुरुआत एक बेहतरीन रचना से.... वाह अदभुत
धन्यवाद