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लकीरें - नेहा शर्मा (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

लकीरें

  • 561
  • 4 Min Read

देखती हूँ हाथों की उन लकीरों को
सोचती हूँ कैसे आड़े टेढ़े धागे
ईश्वर ने पिरो दिए हैं हाथ में
बांध दी है हमारी किस्मत उन्ही धागों में
जिन पर विश्वास करो तो सब कुछ
न करो तो कुछ भी नही।
न जाने क्यों आज ये धागे
ऐसा लग रहा है
जैसे कोई खींच रहा है।
हमारे हाथों की हथेलियों से।
हम चाहकर भी उसे नही रोक पाए रहे
इस डर से की टूट न जाये कहीं।
जो हाथ सिर्फ
उन रेखाओं के देखने के लिए उठते थे
उठ रहे हैं अब दुआओं में।
उस खींचते धागों को रोकने के लिए
जिनमें जीवन अटका है हमारा।
वो सुनकर यूँही नही बैठेगा।
उसने द्रोपदी का चीर बढ़ाया था।
बढ़ा देगा उन लकीरों के धागों को भी।
बस यही विश्वास लिए हर घर में अब
उम्मीदों का दिया कायम है। - नेहा शर्मा

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 2 years ago

बहुत सुन्दर भाव

Anujeet Iqbal

Anujeet Iqbal 2 years ago

सुबह की शुरुआत एक बेहतरीन रचना से.... वाह अदभुत

नेहा शर्मा2 years ago

धन्यवाद

Pallavi Rani

Pallavi Rani 2 years ago

बहुत खूब

Amrita Pandey

Amrita Pandey 2 years ago

बहुत खूब लिखा नेहा जी।

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 2 years ago

बहुत सुन्दर और सामयिक और भावपूर्ण..!

शिवम राव मणि

शिवम राव मणि 2 years ago

बहुत सुंदर

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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प्रपोजल
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माँ
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