कविताअन्य
शहर की दौड़ती-भागती ,
दिनचर्या से अनभिज्ञ गाँव मेरा ।
चढ़े दिनमान गगन पर उससे पूर्व
जाग जाता है गाँव मेरा ।।
खेत-शखलिहानों को चलें कृषक
कांधे पर हल-संग चले बैल ।
पगडण्डी से होकर जाता मार्ग यहाँ
सौपान सदृश शस्य-श्यामल खेत ।।
गूंज रही दिशाएं खगकुल के कलरव से,
है द्रुम -लताओं पर सुंदर मधुप गान ।
पनघट पर है आई सखियाँ लेने नीर ,
चल पड़ी बालाएं ग्वाले लिए संग चौपाए ।।
गोधूलि बेला पर सब वापिस अपने घर आते हैं,
दिनभर कर मेहनत, तब जाकर चूल्हा जलाते हैं।
नर हो या नारी यहाँ के सबके हैं निर्धारित काज ,
राग-द्वेष से परे लोग यहाँ के ऐसा मेरा गाँव।।
मौलिक/स्वरचित
डॉ यास्मीन अली
हल्द्वानी ,उत्तराखंड।