कविताअतुकांत कविता
मैं जानता हूँ
सारा जगत यह जानता है कि
मैंने माँ सीता को भगवान राम से दूर कर
किया था अपराध बड़ा
अहंकार से वशीभूत था मैं
मेरे मन में मैं था समाया
तो क्या इस गुनाह की सजा
मनुज तुम इस तरह दोगे
हर वर्ष रावण का पुतला
जलाकर आखिर क्या देना
चाहते हो संदेश जगत को।।
अरे! मनुज
जलाना ही है कुछ तो
अपने मन से अहंकार जला दो
है मेरा अनुभव कहता
जिसके मन में है ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ
समझने का भ्रम
उसका है सर्वनाश सुनिश्चित एक दिन।।
अरे! मनुज
हर बार पुतला निर्मित कर, दहन कर
मत यूं मुझे सताओ तुम
मुझमें भी थी खूबियाँ कई
उन खूबियों को भी तो आत्मसात करो
हाँ, मेरी ज़िंदगी से भी सीखो तुम।।
अधर्म के मार्ग पर चलोगे जब कभी
तुम्हारी ज़िन्दगी में मुश्किलें आएंगी अनगिनत
सदा चलो धर्म के मार्ग पर
मन से मैं की भावना मिटा दो सर्वदा के लिए
सकारात्मक विचार मन में भरो
नकारात्मक विचारों से नाता तोड़ो।।
©कुमार संदीप
मौलिक, स्वरचित
बेहतरीन भाव व्यंजना की है संदीप....वाह / 'अहंकार के वशीभूत' कीजिये '
धन्यवाद मैम आपका मार्गदर्शन हेतु
सुंदर
धन्यवाद दी
धन्यवाद दी