कहानीहास्य व्यंग्य
एक हामिद का चिमटा था जो माँ के हाथ जलते है हामिद ने इसलिये खरीदा था और एक हमारी माँ का चिमटा था जिसे हम छुपा देते थे। क्यों बताते है वो भी।
हमारी माँ बहुत काम करती। और हम एक नम्बर के नकारा, निठल्ले। ये वाले कसीदे हमारी तारीफ में सब पढ़ते थे इसलिये हम हो गए थे चिकना घड़ा....., चिकना घड़ा समझते हो ना जिस पर किसी भी चीज़ का कोई असर नही होता है। कहाँ हामिद और कहां हम मतलब बिल्कुल 36 वाले डिज़ाइन में थे। एक नम्बर के आलसी भगवान मिलते तो वो भी आकर हाथ जोड़ जाते। पर हम बात भगवान तक जाने से पहले खुद ही निपट लेते।
हाँ तो हम कहाँ थे। हमारे इस नकारा, निठल्ले और आलसीपने से सिर्फ हम ही नही घर का हर वो सदस्य दुखी था जिसको हमसे रत्ती भर भी कोई आशा नही था। क्योंकि आशा तो उन्होंने हमारे लिए बचपन से देख रखी थी। और उस आशा को भी पता था कि हम ऐसे ही है।
ऐसे में माँ का वो चिमटा सबके लिए वो सिद्ध बाबा का दिया हुआ प्रसाद साबित होता था। क्योंकि जब माँ वो चिमटा घुमाकर 90 डिग्री के एंगल में हम पर फेंकती थी तो एक हफ्ते के लिए हमारी चाल सीधी हो जाती थी। पर सिर्फ एक हफ्ते के लिए। घर के सभी लोग समझा समझा कर परेशान हो चुके थे। अब तो सबने दुआ, मन्नत मांगनी शुरू कर दी थी।
खैर कुछ दिन तो कट गए, एक दिन जाकर अहसास हुआ कि निठल्लेपन में भी कमाई हो जाती है। उस दिन हमारा मिलन हुआ मिशो अप्प से। वो अप्प नही थी भगवान का भेजा हुआ फरिश्ता था। धीरे - धीरे उस अप्प से पैसे मिलने शुरू हो गए। और एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि सभी लोग मेरे कमरे में आये। मुझे लगा आज सब मुझसे खुश है कोई मुझे ये नही कहेगा कि तू निकम्मा है नालायक है पर यह क्या उनके हाथ में चिमटा, बेलन, चप्पल! उस दिन उन्होंने जो मुझे मारा आये होए होए होए.... इतना मारा इतना मारा की क्या बताऊँ कितना मारा। मुझे पिटने के घण्टो बाद समझ आया कि क्यों मारा।
हुआ ये कि मैंने घर का आधे से ज्यादा समान मिशो अप्प से बेच दिया था और घर मे अब एक भी फर्नीचर नही बचा था। बेचना दूसरे का सामान था और मैं अपना ही सामान भिड़ा बैठा था।
कसम से उस दिन समझ आया कि फर्नीचर नही घर के चिमटा, बेलन, चप्पल बेचने चाहिए थे। - नेहा शर्मा