कविताअतुकांत कविता
वक्त के समंदर में
ज़िंदगी!
वक्त के समंदर में
ज़िंदगी!
हो कर कतरा कतरा
दूर तलक बहती चली गई
बंद थीं मुट्ठियां
तेरी भी और मेरी भी
फिर भी बंद मुट्ठियों से
रेत सी फिसलती चली गई
बहुत खुश है हर वो शख्स
आज अजनबी बनकर
जो कभी बसा करता था
मेरी आंखों में ख्वाब की तरह
ज़िंदगी भी कहां किसी की सगी थी
बस सबको ठगती चली गई
लगा रखे थे दिल पर
सब्र के सैंकड़ों ताले कि
लबों से आह ना निकले
पर ज़िंदगी तो ज़िंदगी थी
हर रोज़ ख्वाहिशों के
नये नश्तर चुभाती चली गई
लबरेज थी मेरे मन की गागर
मासूम मुस्कुराहटों से
पढ़ाए जब सबक
ज़िंदगी ने दुनियादारी के
हर मासूमियत
चालाकियों में ढलती चली गई
बहुत सुन्दर स्रजन..! जिन्दगी बहुत कुछ सिखा देती है. बस कौन जल्दी सीखता है..!