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"इन्सान"
कविता
इन्साफ़ बानो की चीख़
अब जाग ए इन्सान।
अहसास
ज़हरीला इन्सान
ख़ुदा का अपना कोई मज़हब नहीं है
इन्सानियत के लिए फ़रियाद करें
जिसदिन इन्सान सुधर जाएगा
किस तवील-ओ-कद का है इन्सान
किरदार इन्सान का ज़ीस्त में असली सरमाया होता है
नेकदिल इन्सान भी बशर यहाँ गुनहगार हो जाते हैं
*हमें बशर हरसू इन्सान में इन्सान नज़र आता है*
*इन्सान का बस आना जाना रहता है*
शेष बताना न रहा
*किरदार*
*तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का इन्सान हो*
मेहमानों की तरह रहे
न इन्सान बदलेगा न दहर बदलेगी
इंसान
यारब हमको तेरीही हिफ़ाज़त है
बदल गए कल और आज
इन्सान बेसबब परेशान रहता है
आसमान पाना चाहता है
इन्सान तो आख़िर इन्सान होता है
जितनी बड़ी जंग होती है
इन्सान नहीं मिलता
इन्सान की रगों में खून काला बहने लगा है
इन्सानियत पर सबका अधिकार होता है
फ़ितरत बदलती नहीं इन्सान की
हिंदुस्तान नज़र आता है
इन्सान
अदीब हो गया है
अहमक़ाना रास्ता छोड़ दो तो अच्छा
ऐसे रिश्ता-नाता तोड़दो तो अच्छा
भीतर बाहर एक जैसा हो
सही सोच और सच्ची नीयत
इन्सान की क़ीमत कहाँ
इन्सान छोड़ेगा नहीं
इन्सान की औक़ात उसकी गैरत में होती है
इन्सान बस खुश रहा करे
ज़रूरतें बदल जाती हैं इन्सान की
दिलके काशाने में हमारे सनम हैं
इन्सान है ना-फ़रमाँबरदार
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