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"हैं!"
कविता
बंदे तेरा अंदर कहाँ है
खुशबुएं नदारद बशर
कोई येह तो बताए के हिंदुस्तान और भी है
मुकम्मल कर सफ़र बशर हम आते हैं
रिश्ते याद तो आ जाते हैं
यौम-ए-हिंदी मुबारक
*लोग किरदार समझ लेते हैं*
अहबाब भी हैं
*कलम दवात के सहारे हैं*
कुछ भी बदल सकते हैं
गैरों की कहानी पूछने लगे हैं
हासिले-सुकूने-क़ल्ब
लोग सुबह के अख़बार क्यूँ हैं
रहगुज़र को सफ़र कहते हैं
सुगम सरल डगर कहते हैं
ऐ मंज़िल मिरी रुक जा जरा
तमाशाई सभी बवाल के हैं
मदहोशी जैसे हो गए हैं
जमाने को बदलने का कारण होते हैं
हम उसकी ही फ़रियाद करते हैं
हम अपना विश्वास लिखते हैं
हम सदा रवैय्या अपना नर्म रखते हैं
उभरे हम नहीं हैं
बिनआग के ही आग जला देते हैं
भगवान भी प्रतीक्षा में घर के बाहर खड़े हैं
याद सताती है
इस जहाँसे आगे जहाँ औरभी है
वो ना आने पर अड़ी हैं
हम नहीं दिखा रहे होते हैं अक़्सर वो हम होते हैं
अपने ही दगा दे जाते हैं
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