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"सुकू"
कविता
सुकून
महल और झोपडी
सुकून
ख्वाब
अगन जलाये हैं...
सुकून मग़र बशर भरपूर है
सुकूँ से बशर हम सैर करें
सुकून वोह बशर मिल गया इक फ़क़ीरी से
सुकूँ महफ़ूज़ घर-भर का
सुकून-ए-ज़ीस्त मयस्सर ही नहीं कहीं आदमजात में
जन पक्ष में लेखनी चले
राहें सुकू
सुकून थोड़ातो अपने लिएभी बचाकर रख बशर
सुकून- ए-क़ल्ब
हुई नींदें हराम रातों की
मन भरकर बशर बात हुई
तुमसे मोहब्बत है 😍
रंजो-मलाल का अंबार
ज़रूरतें कम सब्र रखें ज्यादा
इन्सानियत पर सबका अधिकार होता है
थोड़ा-सा सुकूँ चाहिए
हासिले-सुकूने-क़ल्ब
सब से ज्यादा कीमती
दिन का सुकून,नींद रातों का,गुजार रखा है
सुकून-ए-क़ल्ब असल सरमाया
सुकून का सबब बनो
किसीकी शाम -ए -तरब बनो
मंज़िल ख़्वाब नज़र आने लगे
अगर मां नहीं
हासिल सुकूने-क़ल्ब बहुत जहं होता है
सुकूँ मयस्सर नहीं होता
सुकून ए चैन ओ अमन बनाया
सुकून-ए-क़ल्ब किसीको यहाँ नहीं मिलता
सुकून-ए-क़ल्ब को पा लेना
सुकून-ए-क़ल्ब मयकदे में आकर मिला
हमको न हुआ नसीब साया-ए-सुकूने-क़ल्ब
सुकून-ए-क़ल्ब से रहेंगे हम
सुकूनै-क़ल्ब केलिए नींद ज़रूरी
मुफ़लिस का सुकून तो देखो सड़कों पर जाकर
बाहर की दुनिया सारी खारा समंदर है
सुकूनदायक ज़हन नहीं बनाते
सुकून और सब्र की डगर
शराबी से शराबी कहे चल कोई शराबी ढूंढें
सुकूंन से बसर करना हमारे बस में है
सुकूने-क़ल्ब हवा हुए के इतने ग़रीब हुए
शर्बत ए सुकूँ भीतर है बाहर खारा समंदर है
सोच और कर्म से हासिल की जाती है
सारी क़ायनात की तस्वीर बदल जाएगी खुद बदलो तुम्हारी तक़दीर बदल जाएगी सुकून -ए-क़ल्ब अपना कायम रखो बशर बाहरके रंजो-ग़म की तासीर बदल जाएगी
इक कसक सी हयात में रह जाती है
इश्क़ में फरहाद को है सब क़बूल
कहानी
सुकून
लेख
सुकून की तलाश
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