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"वक़्त "
कविता
वक़्त से बशर बना कर चल
वक़्त मिलता ही कहाँ है बशर जिंदगी को संवरने के लिए
अच्छा-खासा वक़्त हमारा बशर जहाँ से गुज़र गया
दिल का बुरा नहीं बशर आदमी वक़्त का मारा है
*वक़्त से बड़ा नहीं उस्ताद कोई*
*हालात वक़्त वक़्त के अपनी जगह*
*वक़्त का थप्पड*
*वक़्त वस्ले-यार में गजारा हुआ*
वक़्त अपना सफ़र करता है
वक़्त हाथ से फिसल गया
वक़्त को आते-जाते साल न समझ
वक़्त को मनाने में जमाने निकले
वक़्त गुज़र जाता है
बीते वक़्त को रोता है
वक़्त नहीं हमको
बीता वक़्त खरीद कर बताए
बुरे वक़्त में लोगों के काम आता है
वक़्त लगेगा
वक़्त के घाव वक़्त के साथ खुद ही भर जाएंगे
ख़राब वक़्त में हमने अकेले ही दिन बिताए
वक़्त की बयार
हिज़ाब नहीं करते मुलाक़ात करते वक़्त
वक़्त ए तकलीफ़ नज़र आते हैं
रहा नहीं वक़्त रौशनाई का
यादें हैं हर वक़्त पास थोड़ी हैं
रिश्तों का रंग घुलने में वक़्त लगता है
बुरे वक़्त से क्यूं घबराता है
बे-वक़्त बिछड़ने वाले
वक़्त मुझे बताए जा रहा है
वक़्त भी बदलेगा और ये दिन-रात भी बदलेंगे
वक़्त का काम है जवाब बताना
वक़्त ही नहीं मिलता
मंज़िल भी दूर है और वक़्त बहोत कम
तन्हा और दोस्तों संग वक़्त बिताने में फ़र्क होता है
वक़्त अपना बेकार जाया कर दिया
वक़्त कहाँ है
कुछ वक़्त केवल अपने साथ बिताना चाहिऐ
बेज़ारी में कितना ही वक़्त गुजारा है
वक़्त को बुरा बताएंगे
वक़्त बुरा लगना अब शुरू हो गया
कहानी
वक़्त
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