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"मग़र"
कविता
सुकून मग़र बशर भरपूर है
आईना मग़र सच बताएगा
चाल बशर उक़ज़ा की मतवाली है
क़जा
माना कि मश्ग़ूल हो तुम
जाती उसकी मग़र यादें नहीं
बशर मग़र कभी रोया नहीं
शख़्स जो बे-हद खास होते हैं
जीने के लिए सारा जग भागे
अज़ीज़ मुझे समझ न सके अजनबी मग़र समझ गए
हिफ़ाज़त वालदैन की
हयात में मग़र बशर हयात से मात खाता है आदमी
बेसबब बोलने का नुकसान मग़र बशर ज़रूर हो जाएगा
बेसबब बोलने का नुकसान मग़र बशर ज़रूर हो जाएगा
कमाल तो है मग़र बुलंदियों पर टिके रहने
नसीब से मग़र कमही मिला है
मुलाक़ात हबीब से ख़्वाब में कम न थी
किसी की दश्त-ब-दश्त रहगुज़र है
मेरी किसीसे कोई जफ़ा नहीं
कहाँ सुनता है
*मुफ्त की शय*
खुशियों से ज्यादा ग़म निकले
मौसम-ए-बहार का नशा तरी है
खुश नज़र आने लगे
रोया मग़र बशर गोया आकर दिसम्बर के महीने में
*बयाँ नहीं होता*
कैसे खुदा राजी रहे
नाम होने का था गुमान मग़र
मन की बात न हुई
हैं औरभी मुख़्तलिफ जानवर-जात दुनिया के जंगल में हर किस्म के मग़र आदमजात के बदरंग किरदार का सूरत-ए-हाल ही और है
सुनते हैं कि साल बदल गया है
सफ़र-ए-हयात में कांटों से भरा रहगुज़र आता है
दिलों में गर्माहट बहुत है
मौसमे -सर्द है
सच और हक़ की सब बात करते हैं
उम्र पक गई मग़र हम कच्चे रह गए
कहे अश्आर तमाम मग़र अपनेही शिफ़ा-ए-मर्ज़ पर
कहनेको अश्आर नहीं है
सूना है फ़लक महताब के बग़ैर
हमको तो इल्म ही नहीं
है कोई बशर फ़रिश्ता मग़र
बात कुछ भी नहीं
हौसला मग़र है
पहूँच कोई नहीं रहा है
फिरसे बिछती बिसात हर मात के बाद
सही शख़्स ही मानता है
है शिफ़ा मग़र मां की दुआ में
उनका क्या करें जो दिल में समाए हैं
घरतो अपना घर है फिरभी मग़र बुलाता है
जी रहे हैं
आदमी को अपना मेयार नहीं खोना चाहिए
भरोसा करना चाहिए
पहुंचता कहींभी नहीं है
जमाने को बदलने का कारण होते हैं
हम कुछ नहीं जानते
चाहत की सबर नहीं होती
नज़रिया हर कहीं बदल सकते हैं
एक फूल के खिलखिलाने से
कोई अपना चाहिए
लिखा हुआ बदल नहीं सकते
कोई पहचानता नहीं था
आते हैं कैसे जाते है कैसे चांद सूरज और दिन-रात
अपनी हदमें इंसान मग़र अहद होना चाहिए
झूठ के पांव नहीं होते मग़र चलता खूब है
उसके चाहे बग़ैर कहींपर पत्ता नहीं हिल सकता
मरने से ज्यादा ज़िंदगी सताती है
हरदिन करिश्मा नहीं होता
इन्सान ग़लत रस्तेपर चल पड़ता है अक़्सर
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