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"जमाने"
कविता
अनकहा दर्द
पहले के जैसे
ज़िंदगी का मजा
ज़माने की नज़र में
प्यास दरिया की बुझती है समंदर में आकर
वक़्त मिलता ही कहाँ है बशर जिंदगी को संवरने के लिए
आजमाइश
कामिल कोई शय नहीं है इधर बशर जमाने की
तहखानों में छुपा रखा है
बीते हुए वोह जमाने ढूंढ़ कर कहाँ से लाऊँ
जमाने गुज़र जाते हैं बशर खुशियों के आने में
*पहचाने जाने में जमाने लगे हैं*
आस उस की मन में विश्वास जगाती है
*संजीदा दिखाई दो*
*मिटादो मन-मुटाव जमाने से*
*जमाने का होता है हाथ फ़ितरत-ए-इन्सा बनाने में*
*तू जमाने बग़ैर मुतमईन नहीं है*
आदमी मैं मरा हुआ हूँ
ग़म जमानेभर से पाये हमने
सबक जमाने से सीखा था
अलग अपनी पहचान रखते हैं
ख़िताब-ए-बाबा-ए-उर्दू
वक़्त को मनाने में जमाने निकले
ख़ैरात-ए-चराग़ क्या दोगे
तुम्हारा येह जमाना नहीं है
ये दौर अलग
कोई अपनों से दूर न रहे
किरदार ऐसा हो कि याद रहे
खुद को बहलाते रहे
जमाने की राह
अक्ल-मंद बनकर जियें
जमाने लगने लगे हैं सहर होने में
ज़माना सुधर जाएगा
जमाने गुज़र जाते हैं तकरार में
इस जमाने से विदा लेकर ......
सुकून-ए-क़ल्ब किसीको यहाँ नहीं मिलता
मनहूस जगह है जमाने केलिए
वक़्तही कहां लगता है
जमाने को बदलने का कारण होते हैं
मिले नहीं बुराई किसी सूरत जमाने से
जमानेभर के अमीरों का पीर हो गया
मर गए पहचान बनाने में
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