कहानीलघुकथा
एक दिन खियांबें में एक फूल खिला। हिचकिचाया हुआ, मुरझाया हुआ वो ऊपर उठा। जब वो खिला तो उसकी पंखुड़ियां आधी अधूरी। कोई मुड़ी हुई , कोई टूटी हुई। रंग भी उसका कुछ खास नही था। जब बाकी के हंसते, मुस्कुराते फूलों ने उसे देखा तो उसका उपहास करने से खुद को रोक ना पाए। हवाओं के साथ लहराती हुई उनकी हंसी उस दुर्बल फूल को कमजोर समझ बैठी। तभी एक फूल ने उसे सम्बोधित कर व्यंग करते हुए कहा कि जीवन तो एक स्पर्धा है, दूसरे से आगे निकलने का आखिरी मौका है। अगर तुम सुंदर नही दिखे, यूँ आधे अधूरे होकर पूरे नही खिले तो कौन चाहेगा तुम्हे? तुम्हारी खुशबू से कौन अपने दो पल महकायेगा? कौन तुम्हे इठलाती डालियों से तोड़ अपने गेसुओं में सजायेगा? या फिर कौन तुम्हे मन्दिर में देवी की माला में पिरोयेगा?
तुम्हारा जीवन तो अर्थहीन है, हर गुज़रता लम्हा बहुत कठिन है।
बाकी फूलों की मद्धम मद्धम वो उपहास करती आवाज़ ने दुर्बल फूल को अंदर ही अंदर तोड़ दिया। उसने सोचा अगर ऐसा है तो वह क्यों जीवित है? क्यों अपने आप को जीवन की स्पर्धा में दौड़ा रहा है?
धीरे धीरे वक्त बीतने लगा। धूप की मिचलाहत, सांझ को तेज हवाओं की आहट और निशा के अकेलेपन में खामोश सी ठंडक, वो सहने लगा। उसका मजाक बनता रहा और जीवन ज्यों का त्यों चलता रहा। पर एक दिन उस डाल पे, जहां वो दुर्बल फूल अपने अस्तित्व को लेकर जिदोजहद में था, अब वहां पर कोई नही। उसने अपने आप को ही तोड़ कर, अपने जीवन की नाज़ुक डाल को काटकर खुद को जमीन पर गिरा दिया। और इस तरह एक और जीवनान्त हो गया। वो दबला कुचला गया, पैरों से उसको रौंदा गया। धूल में लिपटा वो इधर उधर पड़ा रहा। और अंत में उसे एक कबाड़ के ढेर में फेंक दिया गया।
कुछ दिनों बाद एक दूसरे को चुनौती दे रहे, इतराते फूलों को भी तोड़ लिया गया। उन्हें सूंघते हुए माला में पिरोया गया। पर जब वह भी सुख गए, अपनी सुंगध रस को खो गए। तो उन्हें उस ढेर में फेंक दिया गया जहां वो दुर्बल फूल कई मैली मानसिकताओं के नीचे दब चुका था। जीतकर भी और हारकर भी किसी को कुछ हासिल नही हुआ।
लेकिन चाहत में पौधों पर फिर से नई कलियां आई और एक दूसरे को चुनौती देते हुए वो इतराने लगी, पर एक डाल जहाँ वो दुर्बल फूल था, हमेशा के लिए सुनी पड़ गयी।
‘ स्पर्धायाम जयाजयौ शून्यस्य समान:’
शिवम राव मणि©