Help Videos
About Us
Terms and Condition
Privacy Policy
माई की कत्थई साड़ी - Sushma Tiwari (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

माई की कत्थई साड़ी

  • 428
  • 45 Min Read

हवाई जहाज की खिड़की से बाहर सब कुछ धुला हुआ सा लग रहा था। अगर मौका कोई और होता तो शायद मान्यता पचपन की उम्र में भी बच्चों की तरह चहकती हुई, बिना किसी की परवाह किए दिनेश से चिपक कर आसमानी बातें  करना शुरू कर देती। पर आज नहीं.. आज तो ये आसमान यहां होना ही नहीं चाहिए था.. ये फट क्यों नहीं गया? या इसे भी किसी ने सलाह दी थी गम दबा जाओ अपना क्योंकि दुनिया की यही रीत है। एयरपोर्ट पर दिव्या बहू ने सख्त हिदायत दी थी
"माँ! प्लीज मन शांत रखियेगा.. पापा जी आपको अकेले सम्भाल नहीं पाएंगे, मैं चलती साथ पर अनुज की परीक्षाएं चल रही हैं"|
हाँ परीक्षाएं जरूरी हैं जीवन में पास करना.. जैसे मान्यता देने जा रही थी। कसम तो खाई थी कि अब वहाँ नहीं जाएगी दोबारा.. पर कुछ बचा हुआ था जिसे समेटना बाकी था।

सवा महीने पहले जब मनु बेटे ने बताया कि

"माँ! नानी की तबीयत बहुत खराब है.. मामी का फोन आया था.. आप बस अभी निकल लीजिए.. बड़ी मौसी पहले ही पहुंच चुकी है|"
नानी यानी मान्यता की 'माई'!

माई पिच्चासी साल की हो गई थी तो उनका 'बहुत बीमार होना' बाकी सबके लिए आम बात थी पर ये सब जानते थे मान्यता के लिए यह बहुत घबरा देने वाली ख़बर थी।

तीन भाई बहनो के माई की सबसे लाडली मान्यता की जान अब भी उनमे बसती थी। मान्यता खुद नानी बन चुकी थी पर इतनी 'प्रैक्टिकल' नहीं बन पाई थी कि माँ को खो देने जैसी बात आसानी से हजम कर जाए। दिनेश जी से कई बार इस मामले में उसकी बहस भी हो चुकी थी।
" माना! तुम खुद उम्र के वृद्धावस्था वाले पड़ाव में पैर रखने जा रही हो और माई को लेकर इतनी संवेदनशीलता? ये कैसा बचपना है.. जो आया है उसे जाना ही है। अब तो उनकी उम्र भी हो गई है.."

" ख़बरदार जो आपने इसके आगे मुझे और दुनियादारी वाला ज्ञान दिया.. मैं माई के लिए ऐसा कुछ सुनना तो क्या सोचना भी पसंद नहीं करती हूं.. आप जानते है.. "
हाँ सब जानते थे मान्यता का माई को लेकर बचपना। जब वो छोटी थी तब से कहती थी कि मैं माई को कांच के बक्से में बंद कर दूंगी ताकि भगवान जी इन्हें ना ले जाए। मेरे जीते जी मेरी माई कहीं नहीं जाएगी। बाबूजी के जाने पर मान्यता और डर गई थी और माई को महीनों तक अकेले नहीं छोड़ा था। पर नियति के आगे किसकी चलती है और इतने संवेदनशील बिटिया की माई को पत्थर दिल बहू मिली थी। दिनेश जी समझाते थे मान्यता को कि उनके घरेलु मामलों में तुम मत पड़ा करो.. शादी के इतने सालो बाद भी मायके में दखलंदाजी सही नहीं है। मान्यता ये समझती थी बस बात माई की हो तो वह सारे नियम कायदे भूल जाती थी।


कितनी बार मान्यता ने कहा था कि
" माई मेरे साथ चल कर रह तू"
पर वो कहतीं
" नहीं! ज़माना मेरे बेटे को थूकेगा..आख़िर उसकी क्या गलती? परिवार सम्भालने के लिए थोड़ा बहुत बदलना पड़ता है.. वो चुप रहता है बहू की बात सुनते हुए भी पर ख्याल रखता है.. अब जीवन की आखिरी बेला में मैं अपने इहलोक को बंधन में नहीं डालूंगी बिटिया के यहां पड़ी रह कर.. "
बड़ी दीदी ने तो पहले ही मान्यता को कह दिया था.. माई नहीं मानने वाली है, तू कोशिश कर ले।
फ़िर एक दिन ख़बर आई की वो बीमार है और कई दिनों से खाना पीना भी बंद है। मान्यता तुरंत दिनेश जी के साथ माई से मिलने भाई के घर उड़ते हुए पहुंच गई।
" आओ छोटी! माई के प्राण बस तुम्हारे लिए अटके है लगता है.. कंठ से आवाज भी नहीं निकल रही थी ना किसी को पहचान रहीं थी जब सुना कि तुम आ रही हो तो.. छोटी निकल पड़ा मुँह से.."

भाभी की तीखी बाते मान्यता और नहीं सुन पाई या शायद सुनना नहीं चाहती थी। झट से छत पर बरसाती वाले कमरे में पहुंच गई जहां माई रहती थी। मान्यता ने माई को देखा तो कलेजा मुँह को आ गया। आधी काया हो गई थी वो और पहचानना मुश्किल था। मान्यता फफक कर रो पड़ी। बड़ी दीदी ने सम्भाला।
" बड़की दी! ये माई को क्या हो गया.. भली चंगी उपर नीचे कर रही थी हफ्ते भर पहले तो?"
इससे पहले कि दीदी कुछ बोलती भाभी बीच में बोल पड़ी
" हाँ तो कहा मैंने छोटी कि मटर की दाल मत खाओ.. आपको नहीं पचेगी! पर इनकी लालसा इनके सेहत से बढ़कर.. और जो जबरन ना दो तो मेरी बड़ी बहू से इमोशनल अत्याचार कर के ले लेती है या आप बेटियों से चुगली लगाती.. फिर विलेन तो मैं हूँ ही। अब इनको सम्भालूं या आपके भैया को? जो पहले से ही भर्ती थे अस्पताल में, मेरे पीठ पीछे आराम से मनमानी कर खाना पीना हुआ इनका। दस्त ऐसे लगे कि अब ऐसी हालत.. डॉक्टर ने कहा है कि नस बैठ गई है कुछ नहीं कर सकते हैं। "

भाभी के शब्द मान्यता के कानों में शीशे की तरह पिघल रहे थे पर दिनेश जी के इशारे को समझ वो चुप रह गई।
" अब आप सब आ गए है तो मैं व्यवस्था करवा देती हूं.. सब काम निपटते पंद्रह दिन लग ही जायेंगे "
भाभी की स्पष्टवादिता माहौल को फिट नहीं बैठ रही थी पर शायद वो लंबे इंतजार में थी कि कब माई के जिम्मेदारी से मुक्ति मिले।
मान्यता को जैसे बिच्छु ने काट खाया हो। पागलों की तरह गर्म तेल की कटोरी ले आई और माई के तलवों में मालिश शुरू कर दी। बड़की दी को रोना आ गया था उसकी ये हालत देख कर, लगा शायद माई के साथ मान्यता ना चली जाए। मान्यता ने दिनेश जी से कह कर घर पर नर्स बुलाकर माई को ड्रिप लगवा दिया। उन्हें थोड़ा सूप भी पिलाया। भाभी का चेहरा काला पड़ गया जब माई ने उस हाथ को हिला कर उन्हें बुलाया जो हिलना डुलना बंद हो चुका था। माई बात कर रही थी धीरे धीरे और बैठ कर खाना भी खा रही थी.. दो दिनों के अंदर।

सबके लिए ये किसी चमत्कार से कम नहीं था। चौथे दिन भाभी के सब्र का बाँध टूट गया।
" तुम चाहती क्या हो छोटी.. साबित क्या करना चाहती हो? ऐसे तेल मालिश से माई को कब तक जिंदा रख लोगी? तुम लोग तो निकल जाओगे दो दिन में, ये पड़ी रहेंगी बिस्तर पर.. मैं इस उम्र में किसको- किसको देखूँ? हो गया तुम्हारा दुनिया को साबित कर के मैं बुरी बहू हूं तो तमाशा बंद करो अब। "
मान्यता को लगा जैसे कि अभी धरती फटे और ये उसमे समा जाए.. इतनी निर्दयी? नहीं होता तो कह दे कि तुम लोग देख लो पर समाज में नकली नाक बचाने के लिए वो भी नहीं होगा इनसे। माई ठीक थी। इशारों में समझा दिया कि तुम लोग अपने घरों को चली जाओ, मैं ये बेइज्जती नहीं देख पाऊँगी।
ना चाहते हुए भी मान्यता बेइज्जत होकर वापस चली आई पर मन पर जाने कैसा बोझ लिए वह बिस्तर को लग गई। आनन-फानन में उसे आईसीयू में भर्ती करना पड़ा। पूरा परिवार चिंतित था.. जाने कौन सा प्रण लिए बैठी मान्यता अपने ही प्राणों की दुश्मन हो गई है।

मान्यता जब शून्य की अवस्था में थी तभी माई दुनिया से चली गई। शायद अपनी छोटी को और अपमानित होता वो नहीं देखना चाहती थी। मान्यता जब होश में आई तो पंद्रह दिन तक तो किसी ने ये बात उसे नहीं बताई, फिर जब पता चला तो पंद्रह दिन के लिए शून्य हो गई। माई के अंत समय में सेवा कर पाने का सुकून भी उसे अंतिम दर्शन की आस की उम्मीद टूट जाने का गम कम नहीं कर पा रहा था। सोचा अब माई नहीं तो उस दहलीज फिर कभी नहीं जाऊँगी। पर नियति की ऐसी लीला। माई की आखिरी इच्छा का पालन भाभी ने किया था। उनका लाल लोहे का बक्सा उनके सारे बच्चे एक साथ खोल कर बांट ले। बस उसी इच्छा का सम्मान रखते हुए वह भी वापस जा रही थी।
बस इन बादलों को चीर मान्यता भारी मन से माई की धरोहर लेने जा रही थी।
मायके की दहलीज पर पहुंचते ही मान्यता को लगा जैसे पूरा मकान उसके पैर रखते ही ढह जाएगा। दीवारें चिल्ला रही हों कि लौट जाओ यहां अब माई नहीं है। पीठ पर दिनेश जी के हाथो का स्पर्श पाते ही लगा जैसे हिमालय का सहारा मिल गया हो, वह अंदर चली गई। जिस बात को बचपन से वह सुनना नहीं चाहती थी वह हो चुकी थी। माई जा चुकी थी। अब कोई दौड़ कर नहीं आएगा छोटी के आने पर ताजे पेड़े और पानी लेकर.. सबके लिए ये आम बात थी, बुजुर्ग सही उम्र में चली गईं, सब खुश थे.. मुक्ति मिल गई, पता नहीं माई को या माई की ज़िम्मेदारी से बाकियों को।

खैर!

मान्यता शाम की वापसी टिकट लेकर आई थी मतलब साफ था वो वहाँ रूकना नहीं चाहती थी। भाभी को भी उतनी ही जल्दी थी। चाय पूछने पर जब छोटी ने ना कहा तो वह समझ गई कि दोषी उन्हें समझा जा रहा है। बड़ा बेटा फटाफ़ट उपर के कमरे से लाल बक्सा (छोटी पेटी) ले आया।
" अब देखें! कौन सा ख़ज़ाना छुपा रखा है इसमे "
भाभी के तंज पर मान्यता कुछ नहीं बोली, वो पूरी पेटी उसके लिए दुनिया के सबसे बड़े खजाने से बढ़कर थी जिससे माई की यादें जुड़ी हो। मान्यता को यकीन था कि वो जिवित है मतलब माई ने कुछ तो छोड़ा है उसके लिए जिसके सहारे वो जी ही लेगी।
कांपते हाथों से माँ की पेटी बड़ी दीदी ने खोली। कुछेक साड़ियां और एक मखमली डब्बा था जिसमें एक अंगुठी थी।

" काम की चीजों में बस ये अंगुठी है और हजार दो हजार रुपये! बाकी बेकार.. वैसे भी इस उम्र में क्या देंगी वो.. पूरे जीवन एक ढेला तो दिया नहीं मुझे.. अब ये अंगुठी है तो उनकी इच्छानुसार मैं बेच कर पैसे तीन जगह कर दूंगी। साड़ियां किसी को दान में दे दिया जाएगा क्योंकि स्वर्गवासी व्यक्ती के कपड़े, सामान ये सब रखना शुभ नहीं होता.. "
भाभी की बाते सुनकर मान्यता रोने लगी। जैसे एक बाँध था जो टूट गया।
" भाभी इतनी निष्ठुर कैसे हो तुम? अगर संक्रमण से फैला सकती हो तो मुझे भी छू लो ताकि मेरा दर्द जरा कम हो जाए। सोने चांदी की चीजों से अशुभता चली जाती है बाकी सामान में रह जाती है क्या? "
" अब तुम ही बताओ छोटी.. ये कत्थई रंग की साड़ी.. उनकी उम्र थी भला ये रंग पहनने की? जिद करके बड़ी बहू से यही रंग लिया दशहरे के समय। मैंने तो मना कर दिया कि मैं नहीं तैयार करवा रही ये साड़ी। कुछ लिहाज तो होना ही चाहिए "
लिहाज! अपनी पसंद का रंग पहनने के लिए उम्र, समाज, अवस्था, इतना कुछ देखना सोचना पड़ता है क्या?

मान्यता जानती थी माँ को ये रंग कितना पसंद था। अपनी शादी के बाबूजी के साथ इसी रंग की साड़ी पहन वो उनके साथ मेले गई थी। सालो तक सहेज कर रखा था। गाहे बगाहे फिर उसी रंग की साड़ी खरीद ही लेतीं थी वो।

भाभी ताउम्र कुछ ना देने का ताना भले ही दे दे, मान्यता ने आँखों से देखा था एक खेतिहर की मजबूर पत्नि जो बेटे को पढ़ा लिखा कर कुछ बनाना चाहती थी, मामा के घर से पढ़ाई कर के लौटे भाई को शहर इंटरव्यू देने भेजने के लिए माई ने बारी बारी अपने सारे गहने दे दिए थे। माई ने बहुत तपस्या की थी वापस कुछ पाने की उम्मीद कभी नहीं रखी। जो रह गया था उनके पास वो ढेर सारा आशीष अपने परिवार के लिए।
"अंगूठी तुम रख लो भाभी..मुझे बस ये कत्थई साड़ी दे दो" मान्यता ने वो साड़ी सीने से लगा ली।
बड़ी दीदी नम आँखों से मान्यता को देखते हुए अपने लिए भी कुछ तलाश रही थी और भाभी अपनी छोटी सी लॉटरी पर खुश ना होने के स्वांग को ढंग से निभा नहीं पाई।
©सुषमा तिवारी

inbound7238207732981427615_1615449702.jpg
user-image
Madhu Andhiwal

Madhu Andhiwal 3 years ago

मार्मिक

Anil Makariya

Anil Makariya 3 years ago

बढ़िया लेखन ।

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

अत्यंत भावपूर्ण और ह्रदयस्पर्शी..! बहुत सुन्दर और संवेदनशील लेखन..!

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

अत्यंत भावपूर्ण और ह्रदयस्पर्शी..! बहुत सुन्दर और संवेदनशील लेखन..!

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

मां के प्रेम में पगी बहुत प्यारी कहानी

दादी की परी
IMG_20191211_201333_1597932915.JPG