कविताअतुकांत कविता
बस अच्छा लगता है
कभी-कभी अपने ही लिए जीना
बस अच्छा लगता है।
छत की मुँडेर पर बैठ बेसुरा ही सही गुनगुनाना
बस अच्छा लगता है।
देर तक सूखी ही सही पर घास में अपने ही कदम से कदम मिलना
बस अच्छा लगता है।
तेज़ धूप की तपन में छाँव का वो छोटा सा टुकड़ा भले ही घमस से भरा हो पर मेरे लिए हो
बस अच्छा लगता है।
अंधेरी रात में घने बादलों में छुप का निकलता वो एक टुकड़ा चाँद चाहे मेरा न हो पर वो एक जुगनू मेरा हो
बस अच्छा लगता है।
रंगों से कोई ख़ास नाता नहीं है मेरा सारे रंग तुम्हारे हो वो ख़ुशी का एक रंग मेरा हो
बस अच्छा लगता है
जहाँ कोई मुझे तुम्हारी, इसकी या उसकी न कहे बस मुझे मेरे ही नाम से जाने
बस अच्छा लगता है।
कभी-कभी अपने ही लिए जीना सच में
बस अच्छा लगता है।
ज्योत्सना सिंह
लखनऊ
7:18pm.
18-8-2020