कवितालयबद्ध कविता
बाजुएँ फैलाये अपनी, देख ये कौन चलें हैं।
बदन पे तिरंगा लपेटे जिनके लहु बहें हैं।
शान में वतन की जो जान गँवा रहे।
भूलाकर गाँव अपना वो वतन बचा रहे।
क्या बेटी, क्या बेटा, क्या जात, क्या विजात
सब धूमिल हुए जब एकाएक कदम बढ़ें हैं।
बदन पे तिरंगा लपेटे जिनके लहु बहें हैं.
बाजुएँ फैलाये अपनी देख ये कौन चलें हैं।
फिर एक ईंट सरहदी दीवार से गिरी है,
क्या फर्क कि वो लड़का या लड़की है।
बचाने को सैकड़ों जान-ए-नादान
वो लड़ रहे और लड़ते जा रहें हैं।
बदन पे तिरंगा लपेटे जिनके लहु बहें हैं,
बाजुएँ फैलाये अपनी देख ये कौन चलें हैं।
छिपा नहीं शौर्य जिनका जंगे मैदान में,
चाहें हों हजार दुश्मन लम्बी कतार में।
छुपके वार करते वे मूर्ख सुबहोशाम
और वो दिनरैन, अथक, अपलक डटें हैं।
बदन पे तिरंगा लपेटे जिनके लहु बहें हैं,
बाजुएँ फैलायें अपनी देख ये कौन चलें हैं।
याद आती घर की जब उन्हें कभी भी,
देते दिलासा दिल को, रूक जा अभी भी।
खातिर उनके जो आबाद हैं हिन्दुस्तानी,
वो हाल-बदहाल में, सरहद पे खड़े हैं।।
बदन पे तिरंगा लपेटे जिनके लहु बहें हैं,
बाजुएँ फैलायें अपनी देख ये कौन चलें हैं।
मिला था एक सौगात जब अपने गाँव का,
वो खेत की मेढ़ और मचलती धूप छाँव का।
पर निकलते ही सरहद की पुकार आ गई,
कि सामने दुश्मनों के कई हुजुम निकलें हैं।
बदन पे तिरंगा लपेटे जिनके लहु बहें हैं,
बाजुएँ फैलाये अपनी देख ये कौन चलें हैं।
© शिवम राव मणि