कवितालयबद्ध कविता
अलविदा, दो हजार बीस
अलविदा, दो हजार बीस
लेकर जाओ साथ अपने
अपनी सारी टीस,
अपनी सारी बंदिशें,
मानव जति के साथ की
तुमने जितनी भी रंजिशें
अब तो आने दो जीवन में इक्कीस
अलविदा, दो हजार बीस
लाल पडौ़सी से मिला
एक लाल विषाणु का उपहार
देखते ही देखते
घिरा सभी का घर-संसार
बदली सारी जीवनशैली
बदले सारे शिष्टाचार
एक रक्तबीज ने वंश बढा़कर
धरा काल का नव अवतार
जीवन में करके घुसपैठ,
किया सभी को घर में कैद
तन, मन और धन तीनों
लगभग हुए अचेत
गगन चूमते, चमचमाते,
झिलमिलाते, दमदमाते से
विकास का कड़वा सच
बेबस, बगलें झाँकता
राजपथों से बाहर आकर
कच्ची-पक्की सड़कों पर
निकल पडा़ फिर धूल फाँकता
आया बाहर बंद घरों में
सिमटे-सिकुडे़ सभ्य मन की
नंगी कड़वी सच्चाई
जिसे सड़क की विवशता में
साजिशें नजर आई
दुर्भाग्य के बेबस पल में भी
मन की कड़वाहट और नफरत
बाहर तो बदला बहुत कुछ,
पर ना बदली इंसानी फितरत
बना और भी ज्यादा नंगा
और लफंगा मानव-मन
जिसकी लाठी, भैंस उसी की
धन-बल जिसका ऐश उसी की
खोज " आपदा में अवसर "
जागा मन का बहशीपन
सत्ता और बाजार मिले,
क्या खूब बढी़ उनकी यारी
ग्रामदेवता बने भिखारी,
इसकी है पूरी तैयारी
सड़कें आहत, बहरी संसद,
बेरुखी का बढ़ता कद
अहं मिटाने को सत्ता का
धरतीपुत्र बना अंगद
पायी सत्ता भजकर राम,
इनको सन्मति दो भगवान
पहचानें मेहनत की कीमत,
हो पसीने का सम्मान
इक्कीसवीं सदी के इस
इक्कीसवें प्रवेश-द्वार पर
दे रही अंतिम विदा
आहत मन की सब व्यथा
क्रुद्ध मन, अवरुद्ध कंठ से
फूटे इन सब शब्दों को
आँसू बन छलके दर्दो को
मत लेना तुम अन्यथा
हे कलियुग के रक्तबीज,
हे भस्मासुर, हे कालकूट,
हे हिरण्याक्ष, हे दशशीश,
हे त्रासदी के कालरूप,
दो हजार बीस,
और ओढ़कर कितने कफन,
कितने तन होंगे दफन
और जलेंगी असमय
अब और भी कितनी चिता
हे दो हजार बीस, तुमको
जनमन कहता अलविदा
द्वारा : सुधीर अधीर