कवितालयबद्ध कविता
वक़्त
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वक़्त की नजाकत को आओ कुछ यूं समझते हैं।
बैठते हैं पल भर पास, कुछ खुशी के फूल चुनते हैं।
अश्रुओं को अपने समन्दर में डूबा आते हैं।
चलों इन अरसे से बन्द पड़े दिलों की चाबी ढूंढते हैं।
खींचते हैं अम्बर पर एक और इंद्रधनुष की लकीर
चलो होंठों को बहाने से गालों तक फैलाते हैं।
रेत के बने घरों को सीमेंट की चादर ओढ़ा देते हैं।
आज झोपड़ी को अपनी हम महल बनाते हैं।
गुब्बारों में भरकर हवा आसमान में उड़ा देते हैं।
चलो मिट्टी को अपनी हवा और बादलों की सैर कराते हैं।
ठहरो तनिक वक़्त का हाथ पकड़ लूँ।
कहीं छूट न जाये हाथ से आज इसे अपना बनाते हैं। - नेहा शर्मा